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न सम्यक्त्व समं किंचित, त्रैकाल्ये त्रिजगत्यपि।
श्रेयोऽश्रेयश्च मिथ्यात्वसमं नान्यत्तनूभृताम् ।। तीनोंकाल तथा तीनोंलोक (जगत) में सम्यग्दर्शन के समान इस जीव का कल्याण करने वाला और कोई नहीं है तथा मिथ्यात्व के समान इस जीव का अहितकारी और कोई पदार्थ नहीं है।
श्री समन्तभद्राचार्य का कथन अक्षरशः सत्य है, क्योंकि आत्मा की सत्य श्रद्धा न होने के कारण आत्मा का संसारभ्रमण छूटने नहीं पाता, जन्म, जरा, मरण आधि-व्याधि लगी रहती है, इनकी परम्परा छूटने नहीं पाती। आत्मा का अहित भी यही है। सम्यक्त्व होते ही आत्मा को अनुपम आनन्द, शान्ति, संतोष प्राप्त होता है। सम्यक्त्वी जीव के अनेक कर्मों की निर्जरा और संवर होना प्रारंभ हो जाता है। इस तरह कर्मभार हल्का होते-होते वह एक दिन संसारसागर से पार होकर अजर-अमर, वीतराग, पूर्ण सुखी, पूर्ण ज्ञानी, अनन्तशक्ति सम्पन्न, पूर्ण स्वतंत्र बन जाता है। अतः आत्मा के अभ्युदय का मूल सम्यग्दर्शन है। वह सम्यग्दर्शन जीव को कभी-कभी अचानक प्रतिकूल परिस्थितियों में भी प्राप्त हो जाता है। ___भगवान महावीर को केवलज्ञान हो जाने पर भी समवसरण में असंख्य सुर, नर, पशु श्रोताओं के उपस्थित रहने पर भी जब 66 दिन तक दिव्यध्वनि प्रगट न हुई, तब सौधर्म इन्द्र ने इसका कारण अवधिज्ञान से विचारा । अवधिज्ञान द्वारा उसे ज्ञात हुआ कि समवसरण में भगवान के बीजपद रूप दिव्य उपदेश को अवधारण करने में समर्थ विद्वान् श्रोता यहाँ पर कोई नहीं है। अतः गणधर बननेयोग्य विद्वान् जब तक समवसरण में न होगा, तब तक भगवान का दिव्य उपदेश प्रारंभ न होगा।
तब इन्द्र ने गणधर पद के योग्य उस समय के महान विद्वान् इन्द्रभूति गौतम को अवधिज्ञान से जाना। इन्द्रभूति गौतम को अपनी विद्वत्ता का बहुत अभिमान था। वह वेद-वेदांग, न्याय, साहित्य, व्याकरण, छन्द आदि विषयों का पारंगत पंडित था। इन्द्र ने उस इन्द्रभूति गौतम को भगवान् महावीर के समीप लाने के लिये एक युक्ति का प्रयोग किया। उसने एक वृद्ध ब्राह्मण का रूप
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