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सोलहवान वाले शुद्ध स्वर्ण की प्राप्ति जब तक नहीं हुई, तब तक पन्द्रहवान् तक का भी प्रयोजनीय है। उसी तरह यह जीव पदार्थ पुद्गल के संयोग से अशुद्ध अनेक रूप हो रहा है। सो जिनको सब परद्रव्यों से भिन्न एक ज्ञायक मात्र आत्मतत्त्व का ज्ञान, श्रद्धान तथा आचरण रूप प्राप्ति हो गई है, उनको तो अशुद्ध नय कुछ प्रयोजनीय नहीं है और जब तक शुद्ध भाव की प्राप्ति नहीं हुई, तब तक जितना अशुद्धनय का कथन है, उतना यथा पदवी प्रयोजनवान् है। अतः जिनवचनों का सुनना, धारण करना तथा जिनवचन के कहने वाले श्री जिनगुरु की भक्ति, जिनबिंब का दर्शन इत्यादि व्यवहार मार्ग में प्रवृत्त होना प्रयोजनवान् है। और जिसके श्रद्धान और ज्ञान तो हुआ, पर साक्षात् प्राप्ति नहीं हुई, तब तक परद्रव्य का आलंबन छोड़नेरूप अणुव्रत और महाव्रत का ग्रहण, समिति, गुप्ति, पंचपरमेष्ठी के ध्यान रूप प्रवर्तन तथा उसी प्रकार प्रवर्तन करने वालों की संगति करना और विशेष जानने के लिये शास्त्रों का अभ्यास करना इत्यादि व्यवहार मार्ग में स्वयं प्रवर्तन करना तथा अन्य को प्रवत्त करना आदि सब व्यवहारनय का उपदेश अंगीकार करना प्रयोजनवान् है।
राग-द्वेष मोह, विषय-कषाय ये सब आत्मा के विकार हैं, आस्रव के कारण हैं और कर्मबन्ध कराके आत्मा के स्वरूप को भुलाने वाले हैं। अनादिकाल से यह जीव इन राग-द्वेष, मोह, विषय-कषाय से मलिन हो रहा है, सो व्यवहार साधन के बिना उज्जवल नहीं हो सकता। जब मिथ्यात्व, अव्रत, कषायादिक की क्षीणता से देव-शास्त्र-गुरु की श्रद्धा करे, तत्त्वों का जानपना होवे, तब वह अध्यात्म का अधिकारी हो सकता है। जैसे मलिन कपड़ा धोने से रंगने योग्य होता है, बिना धोये उस पर रंग नहीं चढता, इसलिये व्यवहार रत्नत्रय को परम्परा से मोक्ष का कारण कहा है। "जो सत्यारथ रूप सो निश्चय, कारण सो व्यवहारो।' निश्चय रत्नत्रय अर्थात् आत्मा का श्रद्धान, आत्मा का ज्ञान व आत्मा में लीन रहना मोक्ष का साक्षात् कारण है और व्यवहार रत्नत्रय निश्चय रत्नत्रय का कारण है।
हम केवल जाननहार रहें, यही धर्म पालन है। व्यवहार धर्म में पूजा आदि जितने भी काम करने पड़ते हैं, हम यदि उल्टा न चलते होते तो उनकी कोई आवश्यकता न थी। परिग्रह और आरम्भ में रहकर कोई केवल जाननहार रहा
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