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पत्रों में और टी.वी. पर विज्ञापन देता है । सब तरह से उसकी खोज करता है, क्योंकि उसे यह पता नहीं है कि उस पुढ़िया में क्या था, उस दवा का नाम क्या था ?
अब दवा के साथ-साथ उस व्यक्ति पर भी अटूट विश्वास हो गया है और अब उसे ढूँढ़ रहा है ।
इसी प्रकार ज्ञानीजनों ने करुणा करके सीख दी और हमने उपेक्षा से उड़ा दी। वह सीख वहीं पर पड़ी रही। दो चार बातें कान में पड़ गई थीं, जब भयंकर पीड़ा हुई और कोई रास्ता नहीं दिखा, तब वह रास्ता अपनाया और थोड़ी शान्ति प्राप्त हुई। तो अब उन ज्ञानीजनों की तलाश करते हैं।
जब तक इस जीव को परपदार्थों से भिन्न आत्मा की सच्ची श्रद्धा नहीं होती, तब तक मोह-मदिरा के नशे में अपने को भूला हुआ यह पर पदार्थों स्त्री, शरीर, धन, परिवार, बाग-बगीचे आदि में 'ये मेरे थे, मैं इनका स्वामी हूँ, अथवा भविष्य में मैं इनका स्वामी होऊँगा इस प्रकार भूत, वर्तमान व भविष्य के संकल्प-विकल्पों के झूले में झूलता रहता है और कर्मों का आस्रव व बंध करता रहता है।
आचार्य इस प्रकार दुःख व्यक्त करते हुये कहते हैं- 'हे समस्त जगत यानि जगत के प्राणी! अनादिकाल से चले आये अपने मोह को अब तो छोड़ो और आत्मानन्द के रस को चखो।' उन्हें ऐसा लगता है कि किसी प्रकार यह जीव एक बार उसका अनुभव तो करे। यदि एक बार भी कर लेगा, तो फिर कभी छोड़ेगा नहीं ।
अरे बन्धु ! किसी भी प्रकार से रचपचकर कुतूहल मात्र से भी तत्त्व को जानने की इच्छा करके एक मुहूर्त मात्र के लिये ही सही, शरीर का पड़ोसी बन जा। अपनी आत्मा को देखकर उसका तद्रूप में अनुभव कर । ऐसा करने से शरीर के साथ जो तेरे एकपने का मोहभाव है, उसे तूं शीघ्र ही छोड़ देगा ।
ऐ मेरे बन्धु ! जरा थोड़ी देर के लिये तो मेरी बात मान ले। साल या दो साल को नहीं, 5-10 मिनट को ही मान ले। तुम्हें विश्वास न हो तो केवल
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