________________
को मान लेना।
पाँचों इन्द्रियों और मन को वश में नहीं रखना तथा छह काय के जीवों की दया न पालना, ये 12 अविरति के भेद हैं।
अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ; अप्रत्याख्यान क्रोध, मान, माया, लोभ; प्रत्याख्यान क्रोध, मान, माया लोभ; संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ और हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद ये नौ नोकषाय मिलकर 25 कषाय होती हैं।
योग के 15 भेद हैं -
सत्य मनोयोग, असत्य मनोयोग, उभय मनोयोग, अनुभय मनोयोग, सत्य वचनयोग, असत्य वचनयोग, उभय वचनयोग, अनुभय वचनयोग, औदारिक काययोग, औदारिक मिश्र काययोग, आहारक काययोग, आहारक मिश्र काययोग, वैक्रियक काययोग, वैक्रियक मिश्र काययोग और कार्मण योग।
धर्म्यध्यान में, आत्मानुभवन में आलस्य करने को 'प्रमाद' कहते हैं। प्रमाद के 80 भेद हैं -
चार विकथा (भोजन कथा, स्त्री कथा, राज कथा, चोर कथा) चार कषाय, 5 इन्द्रिय, 1 स्नेह, 1 निद्रा ये प्रमाद के 80 भेद हैं। हर एक प्रमाद भाव में एक विकथा, एक कषाय, एक इन्द्रिय, एक स्नेह व एक निद्रा के उदय का संबंध होता है। इसलिये प्रमाद के 80 भेद हो जाते हैं।
तत्त्वार्थसार ग्रन्थ में श्रीमद् अमृतचन्द्र सूरि ने आस्रव तत्त्व का वर्णन करते हुये लिखा है -
मन, वचन और काय की जो क्रिया है, वह योग कहलाती है। जो योग है, वही आस्रव है। शुभ और अशुभ के भेद से योग के दो भेद हैं। शुभ योग पुण्यकर्म का आस्रव कराता है और अशुभ योग पापकर्म का आस्रव कराता है। जिस प्रकार तालाब में पानी लाने वाला द्वार पानी आने का कारण होने से मनुष्यों के द्वारा आस्रव कहा जाता है, उसी प्रकार आत्मा की यह योगरूप प्राणाली भी कर्मास्रव का हेतु होने से जिनेन्द्र भगवान के द्वारा आस्रव कही जाती
LU 176