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अपने परिश्रम को निरर्थक नहीं करना चाहता था।
इस प्रकार यात्रा का एक वर्ष पूरा हो चुका था। अब उनकी यात्रा अपने गाँव की ओर होने लगी। रास्ते में चलते हुये तीनों मित्रों ने फिर से उसे समझाने की भरपूर कोशिश की-मित्र! अब भी मान जा, फिर पश्चाताप करने से कुछ नहीं होगा। अभी तो समय है, हम फिर से अपने गाँव की ओर लौट रहे हैं। चाहे तो तूं सोना भर ले या चाँदी भर ले, परन्तु यह लोहा यहीं छोड़ दे। परन्तु वह टस-से-मस नहीं हुआ।
आखिर अपने गाँव पहुँचकर चारों ने व्यापार किया। तीनों मित्र तो अत्यधि क प्रसन्न थे। वे हीरे के बहुत बड़े व्यापारी बन गये। धन और प्रतिष्ठा ने उनके जीवन में चार-चाँद लगा दिये। परन्तु वह आग्रही मित्र बहुत परेशान हुआ, क्योंकि लोहा बेचने पर उसे बहुत थोड़ा ही लाभ हुआ। एक वर्ष की यात्रा का श्रम करने पर भी उसे विशेष लाभ नहीं हुआ, तब वह बड़ा दुःखी हुआ। अपने विचारों की दुराग्रहता के कारण ही वह दुःखी हो रहा था। समय पर उसने अपने विचारों में परिवर्तन नहीं किया और मिले हुये सारे स्वर्णिम अवसरों को खो दिया।
प्रत्येक व्यक्ति यदि अपने जीवन में समय पर अपनी सूझबूझ से अपने विचारों में परिवर्तन कर ले तो जीवन की ऊँचाई को छू सकता है।
जीवन में आग्रह ही दुःख का कारण है। सत्य बात को समझकर उचित परिवर्तन करने से जीवन विकासशील हो सकता है। परद्रव्यों को अपना मानने की अनादिकालीन कुटेव को छोड़कर शरीरादि से भिन्न आत्मा की श्रद्धा करना ही वह कुंजी है जिसके द्वारा आत्मा के रत्नत्रय भंडार के कपाट खुलते हैं। आत्मश्रद्धा कर्मशत्रुओं को भगाने के लिये एक अमोध मंत्र है, मोह-विष को मारने के लिये एक जुड़ीबूटी है। वह मानव ही क्या, जिसने परमानन्ददायक आत्म-खजाने के दर्शन न किये और उसका लाभ न लिया, क्योंकि जो कुछ वास्तविक आनन्द है, वह वहीं है, उसी में है, उसी की सत्ता में है। मुनिराज जब समस्त संकल्प-विकल्पों से रहित हो अपने आप में एक निज आत्मा के दर्शन करते हैं, तब उनको विदित होता है कि जिन शुद्ध-बुद्ध परमात्मा का नाम जगविख्यात
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