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मानना चाहिये । शक्ति अनुसार अणुव्रतों का पालन करना चाहिये और अज्ञानता छोड़कर भेदविज्ञानी बनना चाहिये। ‘ज्ञानार्णव' ग्रंथ में आचार्य शुभचन्द्र महाराज ने लिखा है -
___ संयोजयति देहेन चिदात्मानं विमूढधीः ।
बहिरात्मा ततो ज्ञानी पृथक् पश्यति देहिनम् ।। जो बहिरात्मा है, वह चैतन्यस्वरूप आत्मा का देह के साथ संयोजन करता (जोड़ता) है अर्थात् एक समझता है। और जो ज्ञानी (अन्तरात्मा) है, वह देह से देही (चैतन्यस्वरूपी आत्मा) को पृथक् ही देखता है। यही ज्ञानी और अज्ञानी में भेद है। यह जीव अनादिकाल से अज्ञानी बना हुआ है। अब तो मोहनींद से जागकर स्वयं को पहचानने का प्रयास करो।
जिन्दगी के तीन आयाम हैं-बचपन, जवानी और बुढ़ापा । अक्सर होता ये है कि व्यक्ति अन्त समय तक भी जाग नहीं पाता। बचपन, यौवन और बुढ़ापा व्यर्थ ही खोकर इस दनियाँ से चला जाता है। जो बचपन में जाग जाते हैं, वो संसार के स्वरूप को सुनकर जागते हैं; जो जवानी में जागते हैं, वे देखकर जागते हैं और जो बुढ़ापे में जागते हैं, वे भोगकर जागते हैं। जो लोग बचपन में जाग गये, वे बडभागी हैं। वे शादी ही नहीं करते और महावीर भगवान के समान बचपन में ही, जवानी में ही सन्यास ले लेते हैं।
गृहस्थी के जाल में फँसने से पहले जो जवानी में ही जाग गये, वे बड़े सौभाग्यशाली हैं। और जो बुढ़ापे में जाग गये, वे भी सौभाग्यशाली हैं। बुढ़ापे में अपने आप को न संभाला तो इस गलतफहमी में मत रहना कि मरघट में संभल जाऊँगा। बुढ़ापा जिंदगी का अंतिम पड़ाव है। अंतिम पड़ाव में भी संभल गये तो जीवन पाना सार्थक हो जायेगा।
एक सम्राट था। उसके सौ पुत्र थे। सम्राट बूढ़ा हो गया। पहले के जमाने में बुढ़ापा देखकर लोगों को परलोक की चिंता हो जाती थी। वह सोचने लगता था कि बुढ़ापे का अर्थ है मौत का पैगाम । जन्म के बाद बचपन आता है, बचपन के बाद जवानी आती है और जवानी के बाद बुढ़ापा आता है। लेकिन बुढ़ापे के बाद कुछ आता नहीं है। बुढ़ापे के बाद तो जाता-ही-जाता है। सम्राट चिंतित
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