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________________ में अपने गुरु के प्रति इतनी प्रगाढ़ आस्था व दृढ़ श्रद्धा थी कि एक दिन गुरु अपने इस शिष्य के समक्ष स्वयं उपस्थित हुए और जब उन्होंने गुरुदक्षिणा में जैसे ही एकलव्य से अपने दाँये हाथ का अंगूठा माँगा, उसी क्षण एकलव्य ने अपना अँगूठा काट कर गुरु के चरणों में रख दिया। अपने इस दृढ़संकल्पी भक्त की श्रद्धा व विश्वास पर स्वयं द्रोणाचार्य को आँसू बहाने पड़े, क्योंकि उन्होंने एकलव्य से उसकी सारी जिन्दगी का ज्ञान जो छीन लिया था। महाभारत में द्रोणाचार्य की इस गुरु दक्षिणा की हालांकि निन्दा हुई है, परन्तु एकलव्य ने तो संसार को यह दिखा दिया कि गुरु के प्रति कोई शंका नहीं। उन्होंने जो माँगा, उसने वह तुरन्त दे दिया। तभी तो एकलव्य की गुरुभक्ति एक प्रेरक व ऐतिहासिक मिसाल बन गई। गुरु द्रोणाचार्य स्वयं उस वक्त अचम्भित हो गए जब उन्होंने देखा कि एकलव्य ने मात्र उनकी मिट्टी की प्रतिमा से ही निर्देशन पाकर अद्भुत धनर्विद्या अर्जित कर ली। एकलव्य की शब्दभेदी बाण की कशलता पर अर्जन तक अपने गुरु आचार्य के प्रति शंकित होकर यह आरोप लगा बैठे कि आपने छल व कपट से एकलव्य को यह विद्या सिखाई होगी। परन्तु जब मौके पर जाकर स्वयं गुरु द्रोणाचार्य व अर्जुन ने एकलव्य की कुटिया में गुरु द्रोणाचार्य की मिट्टी की मूर्ति को देखा, तब उनकी आँखें फटी रह गईं। यही तो चमत्कार था। गुरु द्रोणाचार्य को स्वयं ही अर्जुन से कहना पड़ा कि एकलव्य अचेतन में भी चेतन को पा गया और तुम साक्षात् गुरु के होते भी नहीं पा सके। एकलव्य अपनी श्रद्धा के बलबूते पर गुरु से भी ऊँचा दर्जा पा गया। यही तो विशेषता है श्रद्धा और समर्पण में। जो अर्जुन साक्षात् गुरु से नहीं पा सका, वह एकलव्य मिट्टी की मूर्ति में ही पा गया। __जब जीवन में सहजता व सरलता होगी, तभी श्रद्धा प्रकट हो सकेगी। जिसकी जैसी दृष्टि होती है, उसके परिणाम भी वैसे ही होने लगते हैं। जब महर्षि वाल्मीकि रामायण' में अशोक वाटिका का वृतांत लिख रहे थे कि वहाँ सफेद फूल व हरे पत्तों की छटा बिखरी हुई थी, तभी हनुमान ने कहा-वहाँ तो सारे फूल व पत्ते लाल-ही-लाल थे। जब हनुमान व वाल्मीकि के बीच लाल व 0 1480
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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