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सात तत्वों का विपरीत श्रद्धान
मैं कौन हूँ और मेरा सच्चा स्वरूप क्या है? इसकी सच्ची पहचान जीव ने कभी नहीं की। अनादि से अपने सच्चे स्वरूप को भूलकर जीव ने अपने को शरीररूप ही मान रखा है। आचार्य समझाते हैं कि कर्म और शरीर अजीव हैं। उसको ही जीव का स्वरूप समझना- यह तो सर्वज्ञ भगवान् के उपदेश से विपरीत मान्यता है, इसलिए मिथ्या है। अनन्त जीव सर्वज्ञ केवली भगवान् हुये, सीमंधर आदि 20 तीर्थंकर भगवान् आज भी विदेहक्षेत्र में विराज रहे हैं। उन सब भगवन्तों ने आत्मा को उपयोग स्वरूप देखा है, आत्मा को जड़रूप या राग-द्वेषरूप नहीं देखा।
चेतन को है उपयोग रूप, बिन मूरत चिन्मूरत अनूप।
आत्मा का स्वरूप ज्ञान-दर्शन उपयोगमयी है। आत्मा के स्वभाव में दुःख नहीं है, आत्मा तो ज्ञानानन्द व शांति से भरा है। शरीर मूर्त है, आत्मा अमूर्त है। पर अज्ञानी जीव अपनी चैतन्यस्वरूपी आत्मा को नहीं पहचानता और इस जड़ शरीर को ही 'मैं' मान लेता है।
पुद्गल नम धर्म अधर्म काल, इन” न्यारी है जीव चाल। ताको न जान विपरीत मान, करि करें देह में निज पिछान ।।छहढाला।।
उपयोगस्वरूप चैतन्यमयी जीव को छोड़कर शेष 5 द्रव्य (पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल) अजीव हैं। इनकी चाल अर्थात् स्वभाव जीव से भिन्न है। जैसे शक्कर मीठी है, वैसे जीव उपयोगमय है। उसकी चाल, उसकी दशा सबसे न्यारी है। उसका स्वभाव न्यारा है, जो अन्य किसी में नहीं है। ऐसे जीव
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