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सुख-ही-सुख के आनन्द हो रहे थे। नारद जी कहने लगे-तुम लोग यहाँ पर मध्यलोक के मनुष्यों को क्यों नहीं आने देते? स्वर्ग का इन्द्र बोला-इस बार आप अवश्य अपने साथ किसी मनुष्य को लायें । नारद जी ने मध्यलोक में आकर एक वृद्ध व्यक्ति से कहा कि तुम यहाँ पर बहुत परेशान हो, चलो तुम्हें स्वर्ग के सुखों में छोड़ आऊँ। वृद्ध का शरीर काँपा करता था। वह बोला कि यहाँ पर तो मेरे नाती-पोते आदि सबकुछ हैं, उन्हें छोड़कर कहाँ जाऊँगा? मैं तो जैसा भी हूँ, यहीं ठीक हूँ। तब नारदजी एक धार्मिक व्यक्ति के पास पहुँचे कि भाई, चलो तुम्हें स्वर्ग में छोड़ आऊँ । तब वह बोला कि आप ठीक कह रहे हैं, लेकिन पहले मेरी शादी हो जाये, तब फिर चलूँगा। कुछ दिनों बाद जब उसकी शादी हो गई तब नारद जी फिर पहुँचे । भाई, चलो अब छोड़ आऊँ। तो वह बोला कि लड़का तो हो जाने दो। लड़का भी हो गया। नारद जी फिर उसके पास पहुँचे कि अब चलो, तो वह बोला कि इस छोटे से लड़के को छोड़कर कहाँ जाऊँ? पहले इसकी शादी हो जाये, तब चलूँगा। वे उसकी शादी हो जाने के बाद फिर पहुँचे, तब वह बोला कि नाती का मुख तो देख लूँ। कहने का तात्पर्य यह है कि धर्मात्मा पुरुष भी जब तक बहिरात्मा रहता है, तब तक संसार में इतना फँसा रहता है कि परसंबंध के मोह को छोड़ना नहीं चाहता।
मोहनीय कर्म आत्मा को मोहित करता है, मूढ़ बनाता है। इस कर्म के कारण जीव मोहग्रस्त होकर संसार में भटकता रहता है। यह मोह ही संसार का मूल है, इसलिये मोहनीय कर्म को कर्मों का राजा कहा जाता है। समस्त दुःखों की प्राप्ति मोहनीय कर्म से ही होती है। यह आत्मा के सही स्वरूप को नहीं पहचानने देता और परपदार्थों में ममत्वबुद्धि करवाता है। मोह की तुलना मदिरापान से की गई है। जैसे मदिरा पीने से मनुष्य परवश हो जाता है, उसे अपने तथा पर के स्वरूप का भान नहीं रहता, वह हिताहित के विवेक से शून्य हो जाता है, वैसे ही मोह के उदय के कारण यह बहिरात्मा जीव तत्त्व-अतत्त्व का भेदज्ञान नहीं कर पाता और मकान-दुकान, परिवार आदि के मोह में ही फँसा रहता है। यह जीव जब स्वयं को पर्याय रूप अथवा शरीरादि और रागादि-रूप
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