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समझा रहे हैं-हे जीव! तू बाह्य संपदा से सुख की भीख क्यों मांगता है? संसार की सबसे सुंदर वस्तु तो तुम्हारी आत्मा है, जिसका ज्ञान होने पर यह बाह्य संपदा जीर्ण तृण के समान असार लगने लगती है।
दो मित्र थे। दोनों राजमहल में रहने वाले वैभवशाली राजपुत्र थे। एक बार की बात है कि दोनों मित्रों के मिलन को बहुत समय बीत गया। एक मित्र ने सोचा- चलो अपने मित्र से मिलने चलें। वह मिलने के लिये चल देता है । चलते-चलते वन में उसे एक मुनिराज मिले। मुनिराज को देखते ही वह पहचान गया और आश्चर्य से बोला ।
"अरे मित्र! तुम यहाँ? मैं तो तुमसे मिलने तुम्हारे नगर जा रहा था, लेकिन तुम यहाँ इस रूप में कैसे ?"
साधु ने कहा- मित्र! वह वैभव आदि सब छोड़कर मैं साधु बन गया हूँ । उसने पूछा- अरे मित्र ! इतना सुन्दर राज्य, सुन्दर स्त्रियाँ, बाग-बगीचा आदि वैभव को तुम किस प्रकार छोड़ सके ? वे सब सुन्दर पदार्थ तुम्हें कैसे असार लगने लगे?
साधु बोला- सुनो, मित्र ! वे सब वस्तुयें सुन्दर जरूर हैं, फिर भी ये सब सुन्दर वस्तुयें जिसके सामने सर्वथा असुन्दर भासित होने लगीं ऐसी दूसरी ही कोई परम सुन्दर वस्तु के दर्शन मैंने अपने अंदर में किये हैं। अतः उस परम सुन्दर वस्तु के सामने अन्य सभी वस्तुओं को असुन्दर और असारभूत समझकर छोड़ दिया ।
तब मित्र ने पुनः पूछा–हे स्वामी! वह सुन्दर वस्तु क्या है, जिसकी सुन्दरता पर मुग्ध होने से उसकी सुन्दरता के सामने तुम्हें सारा जगत असुन्दर लगने लगा?
साधु ने मित्र की पात्रता देखकर बड़े ही उल्लास के साथ बताया- हे मित्र ! सहज सुख तो आत्मा का स्वभाव है । सहज सुख अपने आत्मा का अमिट, अटूट, अनन्त भंडार है। अनन्तकाल तक भी इसका भोग किया जावे तो भी यह परमाणु मात्र भी कम नहीं होता। जैसे - का - तैसा बना रहता है । संसारी मोही प्राणी की दृष्टि कभी भी अपनी आत्मा पर नहीं रुकती । वह आत्मा को नहीं DU 125 S