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है। इसे अब ऐसा अवसर पाकर खो न देना चाहिए। अब हमने बुद्धि और विवेक पाया है, अतः जिनवाणी का स्वाध्याय कर निज अत्मस्वरूप को पहचान कर सम्यग्दर्शन प्राप्त करना चाहिए। अगर ऐसी अवस्था में हमने सम्यग्दर्शन न पाया, तो समझो कि कुछ न पाया। रत्नत्रय को प्राप्त करने में ही इस नरभव की सफलता है। अगर हमने यह सब न पाया, तो समझो कि हमने चिन्तामणि पाकर कौवे को उड़ाने के लिये फेक दिया और अमृत से भरे घड़े को पादप्रक्षालन के काम में ले लिया।
श्री अमृतचन्द्राचार्य महाराज ने 'पुरुषार्थ सिद्धयुपाय' ग्रंथ में लिखा हैसम्यग्ज्ञानी अपने स्वभाव से ही सर्व रागादि भावों से भिन्न अपने को अनुभव करता है, इसलिये कर्मों के मध्य पड़े रहने पर भी कर्मबन्ध से नहीं बंधता है। यह आत्मज्ञान की महिमा है।
श्री अमितगति स्वामी 'तत्त्वभावना' में लिखते हैं- जो कोई परमार्थस्वरूप को बताने वाली, उत्कृष्ट सम्यग्दर्शन को देने वाली, मोक्षरूपी लक्ष्मी की दूती के समान अनुपम जिनवाणी को पढ़ते हैं, सुनते व उस पर रुचि करते हैं, ऐसे सज्जन इन कषायों के दोषों से मलिन लोक में दुर्लभ हैं-कठिनता से मिलते हैं और जो इस जिनवाणी के अनुसार आचरण करने की उत्तम बुद्धि करते हैं, उनकी बात क्या कही जावे? वे तो महान दुर्लभ हैं। ऐसी परोपकारिणी जिनवाणी को समझकर उसके अनुसार यथाशक्ति चलना हमारा कर्तव्य है। जिनवाणी की महिमा को प्रदर्शित करने वाला दृष्टांत है
एक ग्राम में एक ग्वाला एक सेठ जी की गायें चराने जंगल में जाया करता था। एक दिन उस ग्वाले ने देखा कि जंगल में आग लगी हुई है, सारे वृक्ष धू-धू करके जल रहे थे और बीच में एक वृक्ष बचा हुआ था। उसे उत्सुकता हुई कि यह वृक्ष कैसे बच गया। उसने करीब जाकर देखा कि वृक्ष के कोटर में एक ग्रंथ रखा है। उसने सोचा कि इस ग्रंथ के कारण ही यह वृक्ष बच गया है, अवश्य ही यह कोई महत्वपूर्ण ग्रंथ है। वह उसे उठा लाया। एक दिन उस ग्राम में एक मुनिराज आहारचर्या के लिए आए। आहार के बाद उस ग्वाले ने वह ग्रंथ उन मुनिराज को भेंट कर दिया, जिससे अर्जित पुण्य के प्रभाव से वह
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