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श्रथ बीजोत्पत्ति :- स्र हु क्षु सस्तु धूमध्वजो, 'र:', क्षतज उ काल काम. महाकाल स्र ू' दहन बीज 'फल' शत्रु दहनादि क्ष. क्षितिबीज 'उ' काल वक्त्रा सयोगात् स्थावरकरण द व्योम वक्त्र काल वक्त्रा सयोगात् । 'व्यापकत्व' फल क्षु ं क्षः त्रेलोक्य ग्रमनबीज सयोगात् दा कृष्टि कृत्फल च 'त्रयस्य' फल ज्ञेय ज्वल ज्वल ज्वलेति च ज्वाला मुख सज्ञात्वात् ल ल ल ल चतुष्कस्य फल प्रवल प्रवल इति चतुष्क लस्य वल भेदि सज्ञात्वात् च चड रूप पुनश्च काल रूप पुनश्च चामुण्डा रूप सिह वाहनत्व श्री लक्ष्मी बीज 'स्र' दहन बीज हा आर्ष बीज ह्री मूल बीज । इति । श्री त्र ह ह्री ।। इति ।। रत्न चतुष्क बिख्यात बीजकोशात् परिज्ञेय ।
च ल च ल 31.
षट् कोण चक्र मे चक्रेश्वरी देवी की मूर्ति लिखकर फिर षट्कोण चक्र की कणिका क्रमश, हु, क्षु ं ह्री च के लिखे, फिर षट् कोरण चक्र के ऊपर चतुष्कोण रेखा खीचे । ऊपर ग्राधा इच का अतराल छोड कर एक रेखा चतुष्कोण और खीचे, दोनो रेखाओ के बीच ऊपर क्षु क्षु लिखे । दक्षिण चचचच ल ल म ल लिखे । उत्तर मे च चं च चल चल लिखे, नीचे 'श्व' श्री त्रह्रा ह्री लिखे । फिर भू पुर को लिख कर वज्र के ऊपर ल ल ल ल लिखे ।
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