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लघुविद्यानुवाद
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द्वितीय वलय मे क्रमश: आ वा हा ता रा ला धा की स्थापना करे तृतीय वलय मे अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋ ल ल ए ऐ ओ औ अ अ., इन सोलह स्वरो की स्थापना करे। चौथा वलय मे क्रम से, असि पाउसा ह्री श्री झ्वी, इन बीजाक्षरो को लिखे। पचम वलय मे ह्री क्ली ब्लू द्रा द्री द्रू (ह्र.) आ को क्षी इन नौ निधि रूप बीजाक्षरो को लिखे, फिर सप्तम वलय मे मूल मन्त्र इस श्लोक का है वह लिखे । मूल मन्त्र :-ॐ ऐं श्री चक्र चक्र भीमे ज्वल २ गरूड पृष्टि समा रूढे ह्रा ही ह ह्रौ ह्र.
स्वाहा। इस मन्त्र को लिखे । इस स्तोत्र के प्रथम काव्य का यह न० १ यन्त्र का स्वरूप बना।।
इस प्रकार के यन्त्र को ताबा, सोना, चादी, अथवा भोजपत्र के ऊपर खुदवा कर यन्त्र सामने रखकर, मूल मन्त्र का पूर्व दिशा मे पद्मासन से प्रात. काल, वरद मुद्रा से साढे बारह हजार जप करे, यन्त्र पास मे रखे तो सर्व शाति होती है सर्व गुणों का लाभ होता है और नाना प्रकार की निधि का लाभ होता है । धन की वृद्धि होती है। भोजपत्र पर यन्त्र लिखना हो तो सुगन्धित द्रव्य से लिखकर पास रखे, तावीज मे धारण करे। मूल मन्त्र .-ॐ ऐं श्री चक्रे चक्र भीमे ज्वल २ गरूड पृष्टि समारूढे ह्रा ह्री ह ह्रौ ह्रः
स्वाहा। इसी मूल मन्त्र का साढे बारह हजार जप करना है।
__अथः द्वितीय श्लोक क्ली क्लीन्ने क्लि प्रकीले किलि-किलि त खे दुदभिध्नाननादे । आ हु क्षु ह्री सु चक्रे क्रमसि जगदिद चक्र विक्रान्त कीत्ति ।। क्षा आ ऊ भासयति त्रिभुवन मखिल सप्त तेज. प्रकाशे ।
क्षा क्षी क्षं विस्फुरन्ति प्रबल बल युते त्राहि मा देवि चक्रे ।२। टीका -हे चक्र, देवि, त्व मा त्राहि रक्ष २ कथ भूते चक्रे क्ली क्लिन्ने क्लीमित्यस्य 'कोर्थ' नित्ये
काम साधिनि पुन. कथ भूते क्लिन्ने काम रूपे मनोभिष्ट साधिनि पुनः कथ भूते क्लि प्रकीले मुखात् क्लि प्रकथके थ 'त' एव किलि-किलि त खे सज्ञा शब्द. किलकिलोति सज्ञा रूप. सजातो यस्मिन् स किलकिल तो र वः शब्दो यस्या पुन. कथ भूते दुदुभि ध्वान नादे, दु दुभि ध्वानवत् नादो यस्या सा व चक्र विक्रान्त कीति. दश दिशा व्याप्त कीर्ति आ हु क्षु ह्री सु चक्रे इदं जगत क्रमसि है सप्त तेज प्रकाशे वल वोर्य पराक्रम | ति मति पुष्टि तुष्टि सप्त तेजासि तेषाप्रकाणे क्षां प्रां त्रिभि