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________________ १६२ लघुविद्यानुवाद सचयो गगन तल सचरोय वशश्छ त्ररुप सदा दृश्यते पार्श्व नाथे यस्य मधुर स्मीत ज्योतिषा पूर्ण हरिणाक लक्ष्मक्षणादेदेव विक्षिप्य पे तस्य मुग्ध मुख पुडरी कस्य कविभिः कदा कोप माकेन कस्मै कथदीयता सस्फुट स्फटिक घटिताक्ष सूत्र नक्षत्र चय चक्र वर्ति पद विनोद सदशिताहनिशा समय चारे सुचारे महाज्ञान मय पुस्तक हस्तपद्मऽत्र वामे दधत्पा भवत्पा स्फुट वाम मार्गस्य सर्वोत्तम त्व समुपदिश्यते दिव्य मुख सौरभे योग पर्यक बद्धास ने सुवदने सुखदने सुहसन सुवसने सुरसने सुवचने सुजघने सुसदने सुमदने सुचरणे सुशरणे सुकिरुणे सुकरणे जननि तुभ्य नम. ऐ अ इ उ ऋ लु इति लघु तया तदनु दैर्येण पचैव योनि स्थिता वाग्भवे प्रणव ॐ बिन्द रूबिन्द रू क ख ग घ ड च छ ज झ ञ ट ठ ड ढ ण त थ द ध न प फ ब भ म य र ल व श प स हे ति सिद्ध रूद्रात्मिक काममृत कर किरण गण वर्पिणी मात्रि कामुद्गिरतिव मन्ति रस तीस सती हसती सदा तत्र कमल भव भवन भूमौ भवति भय भेदिनि भवानि नद भजनी सुभुर्भव स्वर्भुवन भूति भव्ये सुहव्ये सुकव्वे सुक्त तितायेन सभाव्यसे तस्य जर्जरित जरसो विरजसो विपुत्री कृतार्द्धस्य सत्तर्क पद वाक्य मय सु शास्त्र शास्त्रार्थ सिद्धात सौरादि जैन पुराणेति हास स्मृति गारूड भूत तत्र शिरोदय ज्योतिषायुविधाना ख्य पाताल शास्त्रार्थ शस्त्रास मन्त्र शिक्षा दिक विविध विद्या कुल ललित पद गुफ परिपूर्ण रस लसित कान्ति सो दार भरिणति प्रगल्भार्थ प्रबन्ध साल कृता शेप भाषा नहा काव्य लीलोदय सिद्धि मुपयाति सद्योबिके वाद्भवे नैक के नैव वाग्देवी वागोश्वरो जायते किच कामा क्षरेण सक्त दुचारितेन तव साध को बाघ को भवतु भूवि सर्व शृगारिणा तन्नय न पथ पथि मतित नेत्र निलोत्पलत् झटिति सिद्ध गधर्वगण किनरी प्रवर विद्याधरी वासुरी मरी वाम ही नाथ ना गाग ना वा तदा ज्वलन मदन शरि भिकर सक्षोभित्ता विगलितेव दलि तेव छलिते व कवलितेव विलिखि तेव मुखितेव मुद्रितेव व पुषि सपद्य ते शक्ति वीजेषु सध्यायिना योगिना भोगिना रोगिणा वैनतेयाप्यते नाहि नातत् क्षणाद मृते मेघाप्यते दु सह विपाणा शशाक चूडाप्यते ध्यायते येन बीज त्रय सर्वदा तस्य नाम्नैवप श्रु पाशमल पजर त्रुटाति तदाज्ञथा सिद्वयति गुणाष्टक भक्ति भाजा महा भैरवि । ए ॐ हूँ कवलित सकलत त्वात्मके सुख रूप परिणताया त्वयि तदाक परि शिप्य ते शिष्यते यदि तहित्वछक्ति हीनस्य तस्य कार्य क्रिया कारिता तदिति तस्मिन विधौ तदा तस्य कि नाम कि शर्म कि कर्म कि नर्म कि वर्म कि मर्म कामति' कागात कारति: कावृति कास्थिति पर्यप्यति यदि सर्व शून्यात भूमौ निजे स्थास मुन्मेप समय समामाय वालाग्र कोग्र शरूपापि गभि कृत शेप ससार वीजान वनासि क त तदा स्वविकागीय से तदनुपारजनित कुटिलान तेजो कुगजन निवामेति सस्तूय मे बद्ध सस्पष्ट रखा शिग्वावा ज्येप्ठेति मभाव्य से सैव शृगाठका कारिता मागता गैद्रि रोद्रिति विख्याय्यप्ने ताश्चवामादि कास्त कलारबीन गुरगान सदघत्य क्रियाज्ञानमय वाछा स्वस्पा मात्रामरस नाम मधु मयनपुर वैरिणंबीज भाव भजत्य मृजत्य
SR No.009991
Book TitleLaghu Vidhyanuvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKunthusagar Maharaj, Vijaymati Aryika
PublisherShantikumar Gangwal
Publication Year
Total Pages774
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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