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________________ १०] है भैरव पद्मावती कल्प भा० टी०-यदि मत्रके आदिमें शत्रु और मध्यमें सिद्ध हो तो उसको देरसे सिद्ध करना चाहिये। ऐसा मन्त्र सिद्ध तो बहुत कष्टसे होता ही है पर फल भी बहुत कम देता है। अन्ते यदि भवति रिपुः प्रथमे मध्ये च सिद्धयुगपतनम् । कायें यदादिजात तन्नश्यति सर्वमेवान्ते ।। २१॥ भा० टी०-यदि मन्त्रके अन्तमें शत्रु हो और आदि तथा मध्यमें सिद्ध हो तो जो कार्य भादिमें सिद्ध होगा वह अन्तमें नष्ट हो जावेगा। सिद्धं सुसिद्धमथवा रिपुणान्तरितं निरीक्ष्यते यत्र । दुःखापायप्रबलं भवतीति विवर्जयेत्कार्यम् ।। २२ ॥ भा० टी०-मत्रमें सिद्ध, सुसिद्ध अथरा शत्रुका बिन्न पहिले ही देखकर यदि अधिक दुःख या हानि होता हो तो उस कार्यको छोड़ दे। इति भैरव पद्मावतीकलरकी भाषा टोकामें 'सकलीकरण' नामका द्वितीय परिच्छेद समाप्त । तृतीय परिच्छेद देवीकी आराधनविधि मन्त्रोंको जपमें गून्थनेके भेद दीपनपल्लवसम्पुटरोधप्रथन विदर्भणैः कुर्यात् । शान्तिद्वेषवशीकृतिवधव्याकृष्टिसंस्तम्भम् ॥ १॥ भा० टी०-दीपनसे शान्ति, पल्लवसे विद्वेषण, सम्पुटसे
SR No.009990
Book TitleBhairav Padmavati Kalp
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMallishenacharya, Chandrashekhar Shastri
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages160
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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