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में भैरव पद्मावती कल्प
स्नान कराकर अन्य वन आदि देकर गुरु क्रमसे चला माया हुआ मन्त्र दे और कहे
भवतोऽस्याभिर्दत्तो मत्रोऽय गुरुपरम्परायातः
साक्षीकृत्य हुताशनरविशशिताराम्बरा दिनणान् ।। ४९ ।। भा० टो०-'तुमको मैं यह गुरुपरम्परासे चला आया हुआ मत्र अग्नि, सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र और साफाशकी साक्षीपूर्वक देता है।
भक्ताऽपि न दातव्यः सम्यक्तविषार्जिताय पुरुषाय । किन्तु गुरुदेवसमये भक्तिमते गुणसमेताय ॥५०॥
मा० टी०-तुम भी इसको सम्यकत्वसे रहित पुरुषको न देना। किन्तु देव, शास्त्र और गुरुमे भक्ति रखने वाले गुणी पुरुषको ही देना।
लोभादथना स्नेहाहास्यसि चेदन्यसमयभक्ताय । बालस्त्रीमुनिगोवधपापं यत्तद्भविष्यतीति ।। ५१ ।।
भा० टी०-यदि तुम लोभ या प्रेमसे अन्य मतावलम्वीको दोगे तो तुमको बालहत्या, बोहत्या, मुनिहत्या और गोहत्याका पाप लगेगा।
इत्येव श्रावयित्वा तं सनिधौ गुरुदेवयोः । मन्त्री समर्पयेन्मन्त्र सन्त्रासाधनयोगतः ।। ५२ ।।
भा० टी०-मत्री उसको इस प्रकार गुरु और देवताके सामने शपथ देकर मंत्रसाधनके विधानके अनुसार मत्र दे दे।