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भैरव पद्मावती कल्पी
रत्तवर्ण और पृथ्वीके वडे तेज विषवाले होते हैं। करकोटक
ओर पद्मनाग शूद्रकुलोत्पा, कृष्णवर्ण और जलके हलके विषपाले . होते हैं।
विप्रावनन्तकुलिको वह्निगरौ चन्द्रकांतसकाशौ।
तक्षकमहासरोजौ वैश्यौ पीतौ मरुद्गरलौ ॥ १६ ।। भा० टी०-अनन्त और कुलिक नाग ब्राह्मण कुलोत्पन्न चन्द्रमाके समान उज्वल वर्णवाले और अग्निके विषवाले होते हैं। तक्षक और महापद्म वैश्य कुलोत्पन्न पीतवर्ण और वायुके विषवाले होते हैं। ( जय और विजय नाग देवकुलके होते हैं। यह माशीविश कहलाते हैं। किंतु उनके इस पृथ्वीपर न होनेसे उनका वर्णन यहां नहीं किया गया ।)
विषोंके लक्षण पार्थिव विषेण गुरुता जड़ता देहस्य सन्निपातत्वम् । लालाकण्ठनिरोधो गलिनं दन्तस्यतोयविषात् ।। १७ ॥
भा० टी०-पृथिवी विषसे शरीर भारी, जड़ और समिपातकी अवस्था हो जाती है। जलके विषसे मुखसे लार गिरती है और दांत गलने लगते हैं।
गण्डोद्धमतां दृष्टेरपाटवं भवति बह्निविषदोषात् । विच्छायतास्य शोषणामपि मारुतगरलदोषेण ।। १८ ।। भा० टी०-अग्निके विषसे गण्डस्थल फूलने लगते हैं और नेत्रोंसे भी दिखलाई नहीं देता । वायुके विषसे शरीरमें चचलता, नींद न माना और मुखशोषण होने लगता है।
विषहरण मन्त्र 1. ॐ नमो भगवत्यादि मन्त्रमष्टोत्तरशतं । ..:, पठित्वा क्रोशपटहं ताडयेदृष्ट मणिधौ ॥ १९ ।।- .