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उत्कट विरोध का डटकर मुकाबिला
ওও चाहिये।" आपने कहा - "हमें बाहर-बाहर से ही निकल जाना अच्छा नहीं लगता । हमें अम्बाला शहर में अवश्य ही जाना चाहिये । डरने की क्या बात है? ऐसे उपसर्गों और परिषहों से डर जाने से हम सद्धर्म की प्ररूपणा कैसे कर पायेंगे? मैं जानता हूं कि इस समय सारां पंजाब स्थानकमागियों का अनुयायी है। चारों तरफ हमारा विरोध करने के लिये इन लोगों ने लंगर-लंगोटे कसे हुए हैं। सर्वत्र हमारा वेष छीनकर मार भगाने के मनसूबे बनाये जा रहे हैं। पर इससे भयभीत होकर घबरा जाने से काम न बनेगा । यदि मिथ्यात्वांधकार को छिन्न-भिन्न कर सद्धर्म के प्रकाश को फैलाना
और उसका संरक्षण करना है तो हमें कमर कसकर डट जाना चाहिये । प्रभु श्रीमहावीरस्वामी ने इसी सद्धर्म की प्ररूपणा के लिये क्या परिषह और उपसर्ग नहीं सहे थे? उनकी तुलना के सामने हमें होनेवाले उपसर्ग-परिषह तो नगण्य हैं, कुछ भी नहीं है।"
पर श्रीप्रेमचन्दजी शहर जाने को राजी नहीं हुए । जब आपने उसका दिल कच्चा देखा, तो उसे कहा कि "प्रेमचन्द ! तुम अम्बाला छावनी चले जाओ, वहां जाकर ठहरो; मेरा इन्तजार करना । मैं अम्बाला शहर में अकेले ही जाऊँगा। दो-तीन दिन बाद मैं भी छावनी पहुँच जाऊँगा।"
प्रेमचन्द को अम्बाला छावनी भेजकर आप अम्बाला शहर में जा पहुंचे और स्थानक में जाकर ठहर गये। शहर से गोचरी लाकर आहार-पानी किया।
उधर ऋषि गंगाराम आदि अपने दल-बल के साथ कुछ दिन पहले ही अम्बाला शहर में पहुंच चुके हुए थे। उसने यहाँ के श्रावक भाई मोहोरसिंह को अपने पास स्थानक में बुलाया । यह
Shrenik/DIA-SHILCHANDRASURI / Hindi Book (07-10-2013)/(1st-11-10-2013) (2nd-22-10-2013) p6.5