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सद्धर्मसंरक्षक असंभव हो जावेगा । तब आप की धारणा के अनुसार तो कोई साधु-साध्वी पाँच महाव्रतधारी ही न रहेगा। परन्तु आगमों में तो ये सब क्रियाएं करते हुए भी इन्हें पाँच महाव्रतधारी साधु कहा है और माना भी है। क्योंकि जैन आगमों में कहा है कि 'जयना' पूर्वक ये सब क्रियाएं करने में प्राणीवध यदि हो भी जावे तो साधु-साध्वी को हिंसा का दोष नहीं लगता। इसे महाव्रतधारी ही कहा है । क्योंकि 'जयना' से हिंसा नहीं है परन्तु प्रमाद से हिंसा है। यदि साधु प्रमाद - कषाय आदि रहित होकर जयनापूर्वक सब कार्य करता है तो वह महाव्रतधारी है, अहिंसक है। यदि अजयना (अयत्ना), प्रमाद, कषाय, राग-द्वेष, असावधानी से करता है तो प्राणीवध न करते हुए भी हिंसक है, वह महाव्रतधारी नहीं है । इसी प्रकार यदि श्रीजिनेश्वर प्रभु की प्रतिमा की जयनापूर्वक, अप्रमादी, अष होकर पूजा की जाती है तो पूजा करनेवाले पूजक को हिंसक मानना श्री तीर्थंकर प्रभु के सिद्धान्तों का अपलाप करना है ।
अतः हिंसा-अहिंसा के स्वरूप को समझकर अपने हठाग्रह, कदाग्रह को छोडकर श्रीजिनप्रतिमा की सेवा-पूजा स्वीकार करके आप लोगों को आत्मकल्याण की ओर अवश्य अग्रेसर होना चाहिये इत्यादि ।
ऋषि बूटेरायजी महाराजने सौदागरमल भाई के द्वारा किये गये सब प्रश्नों का समाधान आगमपाठों, अकाट्य युक्तियों तथा तर्कपूर्ण दलीलों से किया । चैत्य, जिनप्रतिमा आदि शब्दों के अर्थ तीर्थंकर देवों के मंदिर, मूर्तियाँ, तीर्थ आदि होते हैं इसे आगम के पाठों से ही स्पष्ट सिद्ध किया । यदि इस चर्चा को विस्तार
Shrenik/D/A-SHILCHANDRASURI / Hindi Book (07-10-2013)/(1st-11-10-2013) (2nd-22-10-2013) p6.5
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