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सद्धर्मसंरक्षक इस गाथा में मुखवस्त्रिका का परिमाण-माप बतलाया है, जो चारों ओर से एक वेंत और चार अंगुल हो अर्थात् १६ अंगुल लम्बी
और १६ अंगुल चौडी हो ऐसी चार तहवाली मुखवस्त्रिका होती है। यह मुखवस्त्रिका का एक माप है। दूसरा उपाश्रय आदि का प्रमार्जन-प्रतिलेखन करते समय जिस मुखवस्त्रिका को त्रिकोण करके उसके दोनों सिरों को पकडकर नासा और मुख ढंक जावे
और गर्दन के पीछे गाँठ दी जावें, इस प्रकार की मुखवस्त्रिका होनी चाहिये । यह उसका दूसरा माप या स्वरूप है। परन्तु ध्यान में रहे कि यहाँ जो मुखवस्त्रिका के दो माप या स्वरूप बतलाये हैं, ये एक ही मुखवस्त्रिका के दो विभिन्न स्वरूप या माप हैं। वैसे गणना में तो एक ही मुखवस्त्रिका समझे, दो नहीं।
१. जैन साधु-साध्वी प्राचीनकाल से ही सदा मुखवस्त्रिका को हाथ में रखते आ रहे हैं - इस बात की पुष्टि और अधिक स्पष्ट करने के लिये श्रीऋषभदेव (आदिनाथ) प्रथम तीर्थंकर की बीच में बैठी हुई प्रतिमा के साथ दो खडे तीर्थंकरों की मूर्तियाँ वाली प्रतिमा देवगढ किले के जैन मंदिर में है और ईसा के पूर्व समय की अति प्राचीन काल की है । इसी प्रतिमा में ईन के नीचे दो जैन साधुओं की मूर्तियाँ भी अंकित हैं । बीच में स्थापनाचार्य है । इसके एक तरफ साधु के हाथ में मुखवस्त्रिका है तथा दूसरी तरफ एक साधु मुँहपत्ति का पडिलेहन कर रहा है।
क्योंकि दिगम्बर साधु या आर्यका न तो अपने पास मुखवस्त्रिका रखते हैं और न ही स्थापनाचार्य । इसलिये इस में सन्देह को कोई स्थान नहीं रहता कि प्रभ महावीर के समय अथवा उस से पहले के अन्य तीर्थंकरों के समय से ही सदा जैन निग्रंथ साधु-साध्वी मुखवस्त्रिका को हाथ में ही रखते आ रहे है। मुख पर कदापि नहीं बाँधते थे।
अतः श्वेताम्बर जैन अत्यन्त प्राचीन काल से ही नग्न और अनग्न दोनों प्रकार की जिन प्रतिमाओं को मानते तथा उनकी पूजा-अर्चा करते आ रहे हैं।
Shrenik/DIA-SHILCHANDRASURI / Hindi Book (07-10-2013)/(1st-11-10-2013)(2nd-22-10-2013) p6.5
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