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मुखपत्ती-चर्चा
४५ और यह नियुक्तिकार तो जैनाचार्य पंचम श्रुतकेवली श्रीभद्रबाहुस्वामी चतुर्दशपूर्वधारी थे । इसलिये उनकी प्रमाणिकता में सन्देह को स्थान ही कहाँ है ?
२- आप लोग हत्थगं शब्द का अर्थ पूंजनी (प्रमार्जनी) करते हैं। यह भी सर्वथा आगम तथा प्रसंग के विपरीत है जो कि इसकी व्याख्या से स्पष्ट हो जाता है । हत्थग का अर्थ पूंजनी आपके उपसंप्रदायवाले तेरापंथी भी नहीं मानते । जो कि आप के समान ही मुखवस्त्रिका को मुंह पर बांधे रहते हैं। अतः आगम-विरुद्ध अर्थ करना उचित नहीं है । आगम-विरुद्ध अर्थ करनेवालों को शास्त्रकारों ने अनन्त संसारी तथा निह्नव कहा है। __ ओघनियुक्ति में इस विषय में सम्बन्ध रखनेवाली दो गाथाएं हैं । एक में मुहपत्ती-मुखवस्त्रिका के परिमाण-माप का स्वरूप और आकार का वर्णन है और दूसरी में उसका प्रयोजन बतलाया हैयथा- "चउरंगुलं विहत्थी एवं महणंतगस्स उपमाणं ।
बितियं मुहप्पमाणं गणणपमाणेण एक्केक्वं" ॥ ७११ ॥
व्याख्या - चत्त्वायंगुलानि वितस्तिश्चेति, एतच्चतुरस्रं मुखानन्तकस्य प्रमाणं, अथवा इदं द्वितीयं प्रमाणं यदुत मुखप्रमाणं कर्त्तव्यं मुहणंतये, एतदुक्तं भवति - वसतिप्रमार्जनादौ यथा मुखं प्रच्छाद्यते कृकाटिका-पृष्ठतश्च यथा ग्रन्थिर्दातुं शक्यते तथा कर्तव्यम् । त्र्यस्त्रं कोणद्वये गृहीत्वा यथा कृकाटिकायां गन्थितिं शक्यते तथा कर्तव्यमिति एतद् द्वितीयं प्रमाणं-गणणाप्रमाणेन पुनस्तदेकैकमेव मुखानन्तकं भवतीति ॥
Shrenik/DIA-SHILCHANDRASURI/ Hindi Book (07-10-2013)/(1st-11-10-2013) (2nd-22-10-2013) p6.5
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