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________________ वहां तक अनेक मत-पंथ के साधु-संतों की गवेषणा की । सिवा जैन मुनि के, कहीं पर भी उन्हें सच्चा कल्याणकारी मार्ग नहीं लगा । उन्होंने स्थानकमार्गी जैन साधु की शरण ली। वहां रहकर जब उन्होंने शास्त्राध्ययन किया, तो प्रतीत हुआ कि यह भी मूल मार्ग तो नहीं है। यहां भी अनेक बातें हैं जो मार्गविमुख है। सही मार्ग तो कोई और ही होना चाहिए। और उन्होंने मूर्ति का स्वीकार किया, एवं मुहपत्ति का दोरा तोडा । सत्य की उपासना के बदले में उन्होंने कैसे व कितने कष्ट व संघर्ष झेले, उसका विस्तृत बयान इस ग्रंथ में पाया जाता है, जिसका वांचन हमें आश्चर्यचकित करता है। गुजरात में आने के पश्चात् जब संवेगी गुरु की खोज में वे सफल हुए और संवेगमार्ग अपनाया; तो वहां पर भी उनको आचार की शिथिलता मालूम पडी, तो उन्होंने उन गुरुओं से भी अपने को अलग कर दिया । तपगच्छ को पसंद करना, उसमें भी यति-पक्ष का त्याग करना, बाद में गुरुजनों का भी त्याग करना, यह सब सत्य के खातिर किए गए संघर्षरूप था, और सत्य की वेदी पर दिए गए बलिदानस्वरूप था । बाद में यतियों का जुल्म, उसका निवारण, एकान्त निश्चयवादी लोगों के साथ संघर्ष, त्रिस्तुतिक मत के लोगों से संघर्ष - इत्यादि कई तरह के संघर्ष हुए । सब में ये गुरुदेव एवं उनके प्रतापी पट्टशिष्य मूलचन्दजी व शान्तमूर्ति शिष्य वृद्धिचन्द्रजी - यह त्रिपुटी हमेशा अग्रसर रही व सफल भी रही । यही कारण है कि आज तपगच्छ इतना विशाल है व फला-फूला है। उन्होंने अपनी आत्मकथा लिखी है 'मुहपत्तिचर्चा' । यह आत्मकथा शायद कोई जैन मुनि ने लिखी हुई एकमात्र आत्मकथा Shronik /D/A-SHILCHANDRASURI / Hindi Book Mukhpage (07-10-2013) (1st-1-11-2013) (2nd-12-11-13) p6.5 [4]
SR No.009969
Book TitleSaddharma sanrakshaka Muni Buddhivijayji Buteraiji Maharaj ka Jivan Vruttant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherBhadrankaroday Shikshan Trust
Publication Year2013
Total Pages232
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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