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श्रीबुद्धिविजयजी द्वारा क्रांति
२२३ जो भारत के कोने-कोने में सद्धर्म की प्ररूपना करके जैनधर्म का झंडा लहरा रहे हैं।
सारांश यह है कि यद्यपि भारत में अंग्रेजों का राज्य स्थापित हो चुका था, परन्तु पंजाब में लोहपुरुष सिखवीर महाराजा रणजीतसिंह का राज्य था । इस समय तक पंजाब में लुंकामती स्थानकपंथियों के प्रचार तथा प्रसार के कारण और संवेगी साधुओं के विहार न होने के कारण जैन श्वेताम्बर मर्तिपूजक धर्म लुप्तप्रायः हो चुका था । जिनमंदिर तो थे, पर उन में पूजा-अर्चा करनेवाला कोई न था। इन मंदिरों का संरक्षण तथा पूजा-अर्चा आदि की सब व्यवस्था पूज (यति) लोग ही करते थे । वे जैन धर्मानुयायी तथा दृढ ब्रह्मचारी एवं त्यागी भी थे। आपने पंजाब में सद्धर्म का पुनरुद्धार तो किया ही परन्तु गुजरात और सौराष्ट्र को भी धर्म में खूब चुस्त किया।
पूज्य बूटेरायजी को पंजाब की सदा याद आती थी, पर लगभग ७० वर्ष की आयु हो जाने के कारण वृद्धावस्था और जंघाबल लम्बा विहार करने के लिये सहयोगी नहीं हो रहे थे । इसलिये पंजाब वापिस न पधार सके । आपने गुजरात गणिश्री मूलचन्दजी को, सौराष्ट्र शांतमूर्ति मुनिश्री वृद्धिचन्दजी तथा नीतिविजयजी को और पंजाब न्यायाम्भोनिधि आचार्यश्री विजयानंदसूरि (आत्मारामजी) को सोंपे । इन शिष्यों ने गुरु-आज्ञा को शिरोधार्य कर आपकी भावना को चार चांद लगा दिये और सर्वत्र शुद्ध जैनधर्म का डंका बजाया । सनातन जैन श्वेताम्बर धर्म का संरक्षण तथा संवर्धन किया।
अलौकिक धर्मप्रेम, असीम आत्मश्रद्धा, अजोड निःस्वार्थता तथा अद्भुत निस्पृहता से क्षत्रीय वीर सिख जाति के सपूत
Shrenik/DIA-SHILCHANDRASURI / Hindi Book (07-10-2013)/(1st-11-10-2013) (2nd-22-10-2013) p6.5
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