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आगमानुकूल चारित्र पालने की धून से चमत्कृत होते, वहाँ स्थानकमार्गी साधुओं के आचार को देखकर खेदखिन्न हो जाते । आपने इन वर्षों में थोकडों, बोल-विचारों का भी अभ्यास किया ।
अब तेरापंथियों को देखने के लिये आपने दिल्ली से अकेले ही विहार कर दिया। जोधपुर (राजस्थान) में तेरापंथी साधु जीतमलजी से जा मिले । वि० सं० १८९१ (ई० स० १८३४) का चौमासा आपने इन्हीं के साथ किया । तेरापंथी साधु की श्रद्धा धारण कर उनके आचार-विचार-क्रियाओं को देखा-समझा-अभ्यास किया
और दृढता के साथ पालन भी किया। पर यहा से भी आपका मन हट गया । किन्तु स्थानकमार्गीयों की श्रद्धा इनसे अच्छी जानी । जोधपुर से चलकर आप मारवाड में आये । तेरापंथियों से जो चर्चा सुनी थी वह स्थानकमार्गी साधुओं के साथ की । उन चर्चाओं में आपने साधुमार्गियों के पंथ का खंडन किया । साधुमागियों ने तेरापंथी पंथ का खंडन किया । दोनों में से कौनसा सच्चा है और कौनसा झूठा है इसका निर्णय न हो पाया । ऐसा होते हुए भी आपकी श्रद्धा जैन सिद्धान्तों पर अडिग रही । आपको कभी ऐसा विचार आता कि, "पूर्वभव में मैंने मुखबन्धे लिंग की आराधना की होगी, इसलिये इस कर्म को भोगे बिना छुटकारा नहीं है।" सचझूठ को समझे बिना स्थानकमार्गी तथा तेरापंथी दोनों मुह पर मुखपट्टी-धारी मतों पर अपनी आस्था को टिकाये रखना पडा । परन्तु मन में यह हलचल तो सदा बनी ही रही कि "वीतराग प्रभु के आगमों मे ३६३ मतमतांतर कहे हैं। इन में तो कोई जिनधर्मी है नहीं । वास्तव में जैनधर्म का पालन करनेवाले वर्तमान काल में कौन हैं? इस बात का निर्णय तो जैन सूत्र, सिद्धान्त, आगम पढे बिना नहीं हो सकता । इनमें कोई मत तो सच्चा होगा ही, सब तो झूठे
Shrenik/DIA-SHILCHANDRASURI / Hindi Book (07-10-2013)/(1st-11-10-2013) (2nd-22-10-2013) p6.5
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