________________
सद्धर्मसंरक्षक
इसी उधेडबुन में आपका मन व्याकुल हो उठा। पर फिर आपने यह सोचा कि “मुझ पर ऋषि नागरमल्लजी का उपकार है । यदि मैं इनकी संगत में न आया होता, तो मुझे वीतराग की वाणी सुनने का अवसर ही प्राप्त न होता, इसलिये मुझे उतावल नहीं करनी चाहिये, अभी इन्हीं के पास रहकर मुझे श्रवण-पठन-पाठन करना चाहिये । इसीसे मैं वास्तविकता को समझ सकूँगा।" वि० सं० १८८९ का चतुर्मास भी आपने गुरूजी के साथ ही दिल्ली में किया। इस वर्ष दिल्ली में तेरापंथी साधुजी का भी चौमासा था। उन्हें देखकर आप को ऐसा प्रतीत हुआ कि "यह साधु क्रियापात्र है इसलिये मुझे इनके पास जाना चाहिये।" पर आपके मन में फिर यही विचार आया कि "ऋषि नागरमलजी मेरे उपकारी गुरु हैं I इसलिए सहसा इनका साथ छोडना उचित नहीं । इनका तो 'गुण ले लेना चाहिये। यदि मैं तेरापंथी जीतमलजी के पास जाऊंगा तो क्या मालूम कि तेरापंथियों का आचार इनसे अच्छा है या बुरा ? कई बार ऐसा होता है कि ऊपर से उत्कृष्ट दिखलाई देने वाली वस्तु अन्दर से निस्सार होती है । इसलिए 'अतो भ्रष्टः ततो भ्रष्टः' वाली बात मुझ पर चरितार्थ न हो जाये। कहा भी है कि 'उतावल सो बावला'। अतः तेरापंथियों का कुछ सामान्य परिचय जानने के बाद ही उनसे मिलना योग्य है।" ऐसा सोचकर आप नागरमल्लजी के पास ही दो वर्ष तक दिल्ली में रहे। वि० सं० १८८९-१८९० (ई० स० [१८३२-३३) इन दो वर्षों में आपने साधु के आचार-विचारक्रियाओं आदि का अभ्यास किया। गुरुजी से आगमों का व्याख्यान सुनने का भी प्रतिदिन लाभ लेते रहे। आगमों को सुनने से जहाँ आप आगमों के प्रतिपादित जैन साधु के आचार के वर्णन
१२
Shrenik/D/A-SHILCHANDRASURI / Hindi Book (07-10-2013) / (1st-11-10-2013) (2nd-22-10-2013) p6.5
[12]