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सद्गुरु की खोज में
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(बूटेरायजी) महाराज की ओर आपका ध्यान गया। उनका ध्यान आते ही आपने उन्हीं के चरणों की शरण ग्रहण करने का निश्चय किया ।
आप सोचते हैं - "पूज्य बूटेरायजी भी पंजाबी हैं और मैं भी पंजाब का हूँ। मेरे सब साथी मुनिराज भी पंजाबी हैं। वे भी पहले लुंकामत में दीक्षित हुए और हम लोग भी। बाद में आपने भी इसे अन्यलिंगी और असार समझकर त्यागा और मैंने भी इसे जैनागमबाह्य मनःकल्पित समझकर छोड़ दिया। आपने भी जाट क्षत्रीय और मैंने भी कपूर - क्षत्रीय जाति में जन्म लिया । आपने सारे पंजाब में अकेले ही महावीर प्रभु के धर्म का डंका बजाया और मैंने भी आप के समान कंटकाकीर्ण क्षेत्र को कंटकविहीन बनाने में भगीरथ प्रयत्नों का अनुकरण करके अपने साथी मुनियों के साथ उसे निष्कंटक बनाने का दृढ संकल्प किया है। आपश्री ने पंजाब में यतिसंघ से शिथिलाचार तथा लुंकापंथ की शास्त्रविरुद्ध प्ररूपणा को निस्तेज बनाने के लिये, श्रीमहावीर प्रभु द्वारा प्ररूपित आगमानुकूल सत्यधर्म के प्रचार और प्रसार के लिए भयंकर उपसर्ग तथा कठोर परिषहों को एकाकी सहनकर सत्यवीर सद्धर्मसंरक्षक होने का परिचय दिया है, तो मैंने भी उसी क्षेत्र में आपके अधूरे कार्य को पूर्ण करने का दृढ संकल्प किया है । आप भी यहाँ आकर अविच्छिन्न वीर परम्परा के श्रमण बने और मैं भी यहीं पर उसी परम्परा में गिने जाने का श्रेय प्राप्त करूंगा । आप परमश्रद्धेय गणि मणिविजयजी से दीक्षित हुए और मैं आपश्री (बूटेरायजी) से दीक्षित होने का सौभाग्य प्राप्त करूंगा।" ये थे महाराजश्री आत्मारामजी के स्वागत विचार, जिन्हें वे शीघ्रातिशीघ्र आचरण में लाने के लिये समय की अनुकूलता की प्रतीक्षा कर रहे थे ।
Shrenik/D/A-SHILCHANDRASURI / Hindi Book (07-10-2013) / (1st-11-10-2013) (2nd-22-10-2013) p6.5
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