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मुनि श्री आत्मारामजी
१८१ था) और हजारों परिवारों को शुद्ध सत्यधर्म के अनुयायी बनाये । आपने वि० सं० १९३१ (ई० स० १८७४) का चौमासा होशियारपुर (पंजाब) में करके अपने सहयोगी १५ साधुओं को साथ में लेकर पंजाब से विहार कर दिया । ग्रामानुग्राम विहार करते हुए हाँसी नगर के रास्ते में आप लोग एक रेत (बाल) के टिब्बे (टीले) पर बैठ गये । आपके सभी साथी साधुओं ने मिलकर आपश्री (आत्मारामजी) से निवेदन किया कि -
"पूज्य गुरुवर्य ! आपके सहवास में रहकर हमलोगों ने बहुत कुछ सत्यधर्म को समझा है। जैसे कि -
(१) इस स्थानकपंथ की प्राचीनता का श्रीमहावीर प्रभु तथा श्रीसुधर्मास्वामी की परम्परा में कोई स्थान नहीं है । इसके मूल पुरुष लौंका और लवजी हैं । लौकाशाह विक्रम की सोलहवीं शताब्दी में और लवजी विक्रम की अठारहवीं शताब्दी के पहले चरण में हुए है । इसलिये सोलहवीं शताब्दी से पूर्व इस पंथ का अस्तित्व नहीं था । इस पर भी बिना प्रमाण के इस मत के पंथ को वीर परंपरा का प्रतिनिधि कहना या मानना अपने आपको धोखा देना है।
(२) इसी प्रकार मुँहपत्ती का बाँधना भी शास्त्र के विरुद्ध है। जैन परम्परा में मुँह बाँधे रखने की प्रथा विक्रम की अठारहवीं शताब्दी (वि० सं० १७०९) में लवजी से चली है। इससे पहले प्राचीन वीर परम्परा में तो क्या, लौकागच्छ में भी इस प्रथा का अस्तित्व नहीं था। जैनागमों से इस वेष का कोई सम्बन्ध नहीं है।
(३) जिनप्रतिमा की उपासना गृहस्थ का शास्त्रविहित अत्यन्त प्राचीन आचार है । जिनप्रतिमा की भाव से उपासना करने का
Shrenik/DIA-SHILCHANDRASURI/ Hindi Book (07-10-2013)/(1st-11-10-2013) (2nd-22-10-2013) p6.5
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