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सद्धर्मसंरक्षक में विचरना नहीं हुआ। वि० सं० १९०८ में पूज्य गुरुदेव बूटेरायजी के साथ मुनि मूलचन्दजी दिल्ली पधार गये । यहाँ पर वृद्धिचन्दजी ने पूज्य गुरुदेव से दीक्षा ग्रहण की और इन तीनोंने अन्य दो साधुओं के साथ (कुल पांच साधुओं ने) वि० सं० १९०८ का चौमासा दिल्ली में किया बाद में वे ग्रामानुग्राम विचरते हुए गुजरात में पधार गये। जब पूज्य गुरुदेव वि० सं० १९१९ में पुनः पंजाब पधारे तब मुनिश्री मूलचन्दजी और वृद्धिचन्दजी दोनों पंजाब न जाकर गुजरातसौराष्ट्र में ही विचरण करते रहे। यह बात इस चरित्र को पढने से पाठकों ने जान ली है। ये दोनों पूरे जीवनपर्यन्त गुजरात-सौराष्ट्र में ही विचरे है और इधर ही इनका स्वर्गवास भी हुआ है। इन्हें पंजाब में सद्धर्म के प्रचार का अवसर प्राप्त ही न हो सका। मुनि श्रीआत्मारामजी
इस युग में पंजाब में पूज्य आत्मारामजी महाराज ने वि० सं० १९१० (ई० स० १८५३) में मुनि जीवनरामजी से लुंकामती स्थानकमार्गी मत की साधु दीक्षा ग्रहण की । जैनागमों के अभ्यास से मालेरकोटला (पंजाब) में आपने इस मत को जैनागमों के प्रतिकूल समझकर यहाँ से ही इसी मत के साधु के वेष में रहते हुए वि० सं० १९२१ (ई० स० १८६४) से सत्यधर्म के प्रचार का बिगुल बजा दिया। वि० सं० १९३१ (ई० स० १८७४) तक १० वर्षों में आपने इसी वेष में लुधियाना से दिल्ली, बिनौली, बडौत तक सद्धर्म का प्रचार किया। इन दस वर्षों में लुंकामतियों की तरफ से अनेक प्रकार के प्रतिबन्धों तथा उपद्रवों के करने पर भी आपने बडी जवामर्दी से सब मुसीबतों को झेलते हुए बीस लुंकामती स्थानकमार्गी साधुओं को (जिनको आपने स्वयं प्रतिबोधित किया
Shrenik/DIA-SHILCHANDRASURI / Hindi Book (07-10-2013) 1(1st-11-10-2013) (2nd-22-10-2013) p6.5
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