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प्रत्याघात और मुंहपत्ती चर्चा
गुरुदेव बूटेरायजी के एक शिष्य आनन्दविजयजी थे। उन्होंने प्रायः राधनपुर में अधिक समय बीताया। वे कहाँ के थे और उनकी दीक्षा कहाँ और कब हुई, इस का कुछ पता नहीं लगा। ___ गुरुदेव बूटेरायजी स्व-रचित मुखपत्ती-चर्चा नामक पुस्तक में अपनी आत्मकथा में लिखते हैं कि "रतनविजय आदि के साथ मुँहपत्ती-चर्चा से सौराष्ट्र, गुजरात, कच्छ, महाराष्ट्र, राजस्थान, उत्तरप्रदेश, पूर्वदेश, मध्यप्रदेश, पंजाब आदि सब देशों में अधिकतर लोगों को खबर पड गई कि सब गच्छों के जो यति अथवा संवेगी साधु कानों में मुंहपत्ती के कोने डाल कर व्याख्यान करते हैं, वह शास्त्रसम्मत्त नहीं हैं।
(१) कोई कानों में मोर के पंखों की डंडी डालकर छेद कराता है। कोई कहते हैं कि जिनके कानों में छेद नहीं हैं वे कानों में छेद
नों सिरे डालकर मुंहपत्ती बाँधकर व्याख्यान करें। ___ (२) स्थानकमार्गी साधु मुँहपत्ती में डोरा डालकर चौबीस घंटे मुंह पर बाँधे रहते हैं और व्याख्यान भी करते हैं। इस मत के लवजी नामक साधुने वि० सं० १७०९ में सर्वप्रथम प्रतिदिन चौबीस घंटे अपने मुंह पर मुँहपत्ती बाँधने की प्रथा चालू की ।
इत्यादि अनेक अपनी-अपनी मतिकल्पना से प्ररूपणा कर रहे हैं । यह कैसे आश्चर्य की बात हैं ?" । __वि० सं० १९३० (ई० स० १८७३) को गुरुदेव ने अहमदाबाद में खरायतीलाल नामक स्थानकमार्गी पंजाबी साधु को संवेगी दीक्षा देकर अपना शिष्य बनाया । इनका नाम खांतिविजय
Shrenik/DIA-SHILCHANDRASURI/ Hindi Book (07-10-2013)/(1st-11-10-2013) (2nd-22-10-2013) p6.5
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