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सद्धर्मसंरक्षक मिलती, तुरन्त वहाँ पहुँच जाता । कई-कई महीनों तक उनके सहवास में रहकर देखा, परन्तु कहीं भी संतोष नहीं मिला । कोई भाँग पीता था, तो कोई गाँजा या सुल्फा का दम लगाता था। कोई अफीम खाता था, तो कोई अन्य व्यसन-सेवन करता था । कोई मठधारी था, तो कोई धन-दौलत-जमीन का परिग्रहधारी था । किसी के भी चरित्र, आचार-व्यवहार तथा सिद्धांतों की छाप इस पर न पडी। इसी प्रकार गुरु की खोज में सात-आठ वर्ष बीत गये, चौबीस वर्ष की आयु हो गई।
गुरु की खोज में जगह-जगह की खाक छानने के बाद, एकदा बूटासिंह को मुख पर पट्टी बाँधनेवाले साधुओं की संगत हुई। पता करने पर मालूम हुआ कि वे बाइसटोला (स्थानकमार्गी) जैनी नाम धरानेवाले साधु हैं । बडे साधु का नाम नागरमल्लजी था । बूटासिंह ने समझा कि यह साधु संसारतारक है। ऐसा निश्चय करके आपने अन्य सभी की संगत छोड दी। धीरे-धीरे आप का परिचय इनके साथ बढता गया । आप को ऐसा मालूम हुआ कि श्रीनागरमल्ल पढे-लिये और विद्वान हैं। जीतने भी साधु-सन्यासी देखे हैं, उनसे इनका त्याग भी विशेष मालूम होता है। आपने इनसे वीतराग की वाणी सुनी, पढने का अवसर तो मिला नहीं था । पुण्यानुबन्धी-पुण्य के बिना केवली-प्ररूपित धर्म सुनना दुर्लभ है, पालने की तो बाद की बात है। आप पर इनके चारित्र और सिद्धांत की गहरी छाप पडी। आप सोचने लगे कि "जिस की मुझे खोज थी वह गुरु मुझे मिल गया है। इनके सिद्धांत ही मुझे आत्मकल्याणकारी मालूम होते हैं । इनके शास्त्रों को शनैः शनैः पढा जावेगा, तभी इनकी सत्यता-असत्यता का परिचय मिलेगा ।
Shrenik/DIA-SHILCHANDRASURI / Hindi Book (07-10-2013)/(1st-11-10-2013) (2nd-22-10-2013) p6.5
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