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प्रत्याघात और मुंहपत्ती चर्चा
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के पास मेरी तरफ से आदमी को भेजकर कहला दिया जावे कि वह भी न जावें।"
दलपतभाई तथा मयाभाई दोनों बोले- "यह बात नहीं होगी । यदि मूलचन्दजी नहीं जावेंगे तो वे लोग कहेंगे कि 'मूलचन्द झूठा है इसलिये नहीं आया । यदि सच्चा होता तो सामने आकर चर्चा करता ।' इसलिये इस विषय पर कुछ सूझ-बूझ से कदम उठाना चाहिये।"
नगरसेठ प्रेमाभाई ने कहा- "भोजक को बुलाया जाय।" तब भोजक को बुलाकर नगरसेठ ने कहा कि "सारे अहमदाबाद में सब साधु-साध्वीयों तथा श्रावक-श्राविकाओं को नोतरा (बुलावा) दे आओ कि कल प्रात:काल सेठ की धर्मशाला में सब इकट्ठे हो जावें, वहाँ मुँहपत्ती की चर्चा होगी। रतनविजयजी को भी कह आना।" सेठ ने भोजक के साथ अपना आदमी भेजा। दोनों जाकर सब जगह कह आये । जब रतनविजय को यह समाचार मिला तो उनके हाथों के तोते उड़ गये। वह गहरी सोच विचार में पड़ गया कि "अब क्या किया जावे ? मैंने तो सोचा था कि मूलचन्द से पूछेंगे कि 'तुम व्याख्यान के समय मुखपत्ती को कानों में नहीं डालते, यह क्या कारण हैं ?' यदि वह यह कहेगा कि 'हम नहीं डालते, इसकी चर्चा की क्या आवश्यकता है ? जिसकी जैसी श्रद्धा हो वैसा करे ।' तब उनसे हम पूछेंगे कि गच्छ में सब साधु कानों में मुँहपत्ती डाल कर व्याख्यान करते हैं तो यह बात अच्छी है या बुरी ?' यदि वह कहेगा कि 'अच्छी है ।' तब उससे पूछेंगे - यदि अच्छी बात है तो तुमको भी करनी चाहिये। तुम भी तो तपागच्छ के हो ।' यदि मान लेगा तो अच्छी बात है । तब इस चर्चा के समाप्त होने पर फिर कोई दूसरी
Shrenik/D/A-SHILCHANDRASURI / Hindi Book (07-10-2013) / (1st-11-10-2013) (2nd-22-10-2013) p6.5
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