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जिनाज्ञा-विरुद्ध प्रथा का विरोध
१४३ के लिये आये। तब मूलचन्दजी ने कहा - "गुरुदेव ! आप भी हम लोगों के साथ चलिये । वहाँ चर्चा का क्या काम? दीक्षा होने के बाद वहाँ से चले आयेंगे।" तब आप भी अपने मुनि-परिवार के साथ दीक्षा-मंडप में आ पधारे। जिनाज्ञा-विरुद्ध प्रथा का विरोध
जो बाई दीक्षा लेनेवाली थी, उसने दीक्षा-मंडप में आकर साधुओं के सामने रुपये चढाकर उनकी पूजा शुरू की। आपने तो संवेगी साधुओं में ऐसी प्रथा कभी देखी नहीं थी। आप लोगों को भी संवेगी दीक्षा लिये हुए सोलह वर्ष बीत चुके थे । तब से मूलचन्दजी और वृद्धिचन्दजी तो गुजरात में ही रहे थे । आप भी संवेगी दीक्षा लेने के बाद छह वर्ष गुजरात और सौराष्ट्र में विचर चुके थे। पर किसी साधु की न तो रुपये चढाकर पूजा करने-कराने की प्रथा थी और न ही रुपयों आदि से अंगपूजा कराने की प्रथा थी। यह तो यतियों-श्रीपूज्यों की प्रथा थी। क्योंकि वे साधुवेष में परिग्रहधारी थे। उन्होंने इसे अपनी आय का साधन बना रखा था। रतनविजयजी ने भी यतियों में से आकर संवेगी साधु की दीक्षा ग्रहण की थी। इसलिये उसने यह नई प्रथा चालू की थी।
बाई ने पहले पं० रतनविजयजी की रुपयों से पूजा की, पश्चात् गणि मणिविजयजी की रुपयों से पूजा की । गणि मणिविजयजी सरल-भद्रिक प्रकृति के भोले थे। उन्होंने इस प्रथा का विरोध न किया । फिर पूज्य गुरुदेव बूटेरायजी के सामने रुपये चढाकर पूजा करने के लिये दीक्षा लेनेवाली बाई आ उपस्थित हुई । बाई जब रुपये निकाल कर आपकी पूजा करने लगी, तब तुरंत ही आपके शिष्य मुनि नित्यविजयजी बोले कि - "बाई ! रुक जाओ ! हम त्यागी
Shrenik/DIA-SHILCHANDRASURI / Hindi Book (07-10-2013)/(1st-11-10-2013) (2nd-22-10-2013) p6.5
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