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सद्धर्मसंरक्षक
पूज्य गुरुदेव इसी वर्ष पंजाब से अहमदाबाद पधारे और इसी वर्ष डेला के उपाश्रय में मुनि रतनविजय को पंन्यास पदवी दी गई थी । उसमें पंजाबी साधु कोई भी नहीं गया था । मुनि रतनविजय को मुनि सौभाग्यविजयजी ने एक यति से संवेगी दीक्षा दी थी और अपना शिष्य बनाया था । इस समय पं० सौभाग्यविजयजी कालधर्म प्राप्त कर चुके हुए थे । मुनि रतनविजय गणि मणिविजयजी के साथ ही रहते थे ।
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गुरुदेव ने कहा - "मूला ! मैंने सुना है कि आज यहाँ क बाई को दीक्षा देने के लिये डेला के उपाश्रय से मुनि रतनविजय आदि साधु यहाँ आवेंगे । उससमय यहाँ कोई ऐसी घटना न हो जावे कि जिससे चर्चा छिड जावे । ऐसा होनेसे वाद-विवाद में व्यर्थ समय जावेगा । राग-द्वेष की वृद्धि होगी । ज्ञान-ध्यान में बाधा पडेगी । इसलिये मैं शहर में जाकर कुछ दिनों के बाद यहाँ वापिस चला आऊंगा । मुझे शहर में जाने से मत रोको, क्योंकि मेरा कई बातों में उनकी श्रद्धा से मेल नहीं खाता । मूला ! तुम जानते हो कि साधु की आचरणा में मतभेद होने के कारण ही संवेगी दीक्षा लेकर भी हम उन सब साधुओं से अलग रहते हैं । इसलिये अलग रहने से कोई खैंचातान तो नहीं है।"
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मूलचन्दजी ने कहा - "गुरुदेव ! आपको वहाँ फिर कौन बुलाने आवेगा ? दीक्षा देकर शहर में चले जावेंगे। कोई खैंचातान नहीं होगी । आप क्यों चिंता करते हैं ?" गणि मूलचन्दजी के कहने पर आप यहीं रह गये ।
गणि मणिविजयजी के साथ पं. रतनविजयजी बाई को दीक्षा देने के लिये यहाँ आये । दीक्षा के समय आप लोगों को भी बुलाने
Shrenik/D/A-SHILCHANDRASURI / Hindi Book (07-10-2013)/(1st-11-10-2013) (2nd-22-10-2013) p6.5 [142]