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संवेगी दीक्षा ग्रहण
१०९ लिए मात्र एक पात्र ही रखते थे । कभी-कभी तो चादर का भी त्याग कर ध्यानरूढ रहते थे। एकान्त में मंत्रणा
मुनिश्री मूलचन्दजी और मुनिश्री वृद्धिचन्दजी ने एकान्त में बैठकर निर्णय किया कि गुरुजी की आज्ञा का पालन अवश्य किया जायेगा । हम योग्य मुमुक्षुओं को दीक्षा देकर अपने शिष्य न बनायेंगे, मात्र गुरुजी के नाम से ही दीक्षा देकर उन्हीं के शिष्य बनायेंगे । अर्थात् अपने गुरुभाई बनायेंगे । वि० सं० १९१३ (ई० स० १८५६) में दो भाइयों की दीक्षा हुई । भावनगर में सूरत के श्रावक नगीनदास को मूलचन्दजी ने गुरु महाराज के नाम की दीक्षा देकर उसका नाम नित्यविजय रखा (यह नीतिविजय के नाम से प्रसिद्धि पाए) दूसरे एक श्रावक को पूज्य बूटेरायजी महाराज ने अहमदाबाद में स्वयं दीक्षा देकर उसका नाम पुण्यविजय रखा । वि० सं० १९१४ (ई० स० १८५७) का चतुर्मास मुनि बूटेरायजी ने मुनि पुण्यविजय के साथ अहमदाबाद में, मुनि मूलचन्दजी ने सिहोर में और मुनि वृद्धिचन्दजी ने भावनगर में किया।
वि० सं० १९१५ (ई० स० १८५८) को भावनगर में मुनिश्री वृद्धिचन्दजी ने एक श्रावक को अपने गुरुजी के नाम की दीक्षा देकर अपना गुरुभाई बनाया । नाम भावविजयजी रखा। आदर्श गुरुभक्ति ____ मुनि श्रीबूटेरायजी महाराज अहमदाबाद से पालीताना में पधारे । मुनि मूलचन्दजी भी गुरुदेव के दर्शन करने के लिए सिहोर से पालीताना पधार गए । समाचार मिलते ही मुनिश्री वृद्धिचन्दजी
Shrenik/DIA-SHILCHANDRASURI/ Hindi Book (07-10-2013)/(1st-11-10-2013) (2nd-22-10-2013) p6.5
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