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________________ ९८ सद्धर्मसंरक्षक तथा कदागृही और द्वेषी कदापि नहीं थे। झूठा, द्वेषी, कदाग्रही तो उसे कहना चाहिए कि जो सत्य-झूठ में कोई अन्तर न समझे । अविवेकी तो उसे समझना चाहिये कि जो श्रीवीतराग सर्वज्ञ प्ररूपित धर्म में तथा रागीद्वेषी अल्पज्ञों द्वारा चलाये गये विवेकशून्य धर्मों में कोई अन्तर न समझे । विचक्षण और अकदाग्रही तो विवेकवान ही होता है। जब मैंने उपाध्यायजी के १-अध्यात्मसार, २-द्रव्य-गुणपर्याय रास, ३-ज्ञानसार, ४-देवतत्त्व-गुरुतत्त्व-निर्णय, ५-साढे तीन सौ गाथाओं का स्तवन, ६-डेढ सौ गाथाओं का स्तवन, ७सवासौ गाथाओं का स्तवन, ८-चौबीसी, ९-बीसी, १०-अठारह पापस्थान की सज्झाय इत्यादि ग्रन्थों को पंडित रामनारायणजी से अर्थ-विवेचन सहित पढा । उस पर से निर्णय किया कि उनके ये सब ग्रन्थ नय-निक्षेप, अनेकान्तवाद-स्याद्वाद, निश्चय-व्यवहार, सप्तभंगी-आठ पक्ष, सोलह वचन, भाषा और व्याकरण की दृष्टि से भी वीतराग सर्वज्ञ प्रभु के मार्ग को बतलानेवाले बिना दाग-धब्बों के निर्मल कांच के समान हैं। मात्र इतना ही नहीं, परन्तु पथभ्रष्टों के लिये रोशनी के मीनार (प्रकाशस्तंभ) के समान हैं। किन्तु जीव को शुद्धप्ररूपणा करनेवाले का संयोग मिलना दुष्कर है। यदि संयोग मिल भी जावे तो सुनना दुर्लभ है । यदि सुन भी ले तो कदाग्रहदृष्टिराग के कारण विवेकबुद्धि के बिना समझना संभव नहीं । यदि समझ भी ले तो श्रद्धा आना दुर्लभ है। कारण यह है कि जीव को अनादिकाल से मिथ्यात्व ने घेरा हुआ है । व्यवहार में तो जीव को देव-गुरु-धर्म का निमित्त है, पर उपादान तो मोहनीय, ज्ञानावरणीय, Shrenik/DIA-SHILCHANDRASURI / Hindi Book (07-10-2013)/(1st-11-10-2013)(2nd-22-10-2013) p6.5 [98]
SR No.009969
Book TitleSaddharma sanrakshaka Muni Buddhivijayji Buteraiji Maharaj ka Jivan Vruttant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherBhadrankaroday Shikshan Trust
Publication Year2013
Total Pages232
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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