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योग्य गुरु की खोज के लिये मनोमंथन
९७ आदि सब विद्यमान हैं। इसलिए यदि सत्यमार्गगवेषी सत्य-झूठ, सन्मार्ग-उन्मार्ग की गवेषणा न करे, उसमें अन्तर न समझे, हेयज्ञेय-उपादेय को न जान पाये तो आत्मगवेषी नहीं बन सकता । और आत्मगवेषी बने बिना, सत्य वस्तु को समझे बिना, सन्मार्ग का आचरण करना, सत्-पथगामी होना असंभव है तथा शुद्धमार्ग के आचरण बिना आत्मशुद्धि कदापि नहीं हो सकती । आत्मशुद्धि के बिना जीव सब कर्मों से छुटकारा पाकर मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता । इसलिये सत्यवस्तु की सारता के प्रतिपादन के साथ असत्य की निःसारता का स्वरूप भी समझना अनिवार्य है। ताकि मुमुक्षु आत्मा सन्मार्ग का स्वीकार तथा उन्मार्ग का त्याग कर सत्पथगामी बन सके। काँच और हीरे की परख के लिये यदि जौहरी को गुण-दोष का बोध न हो तो उसे जौहरी कहना नितांत भूल है। पीतल तथा सोने का क्रय-विक्रय करनेवाले को भी इनके अन्तर की परख होनी चाहिए, नहीं तो वह कुशल व्यापारी नहीं है। पीला है वह सोना ही है ऐसा माननेवाला जो धंधादारी पीतल और सोने को एक समझकर क्रय-विक्रय करेगा वह मार खा जाएगा, पिट जाएगा, चौपट हो जाएगा, व्यापारियों में उसकी साख उठ जाएगी
और अन्त में वह दीवालिया हो जावेगा। इसलिए उपाध्यायजी ने तो अपने ग्रंथों में नीर-क्षीर-विवेक की दृष्टि से सत्यमार्ग-गामियों के लिए सब विषयों पर गवेषणपूर्वक बडी विद्वत्ता से, निष्पक्षपात दृष्टि से समभावपूर्वक अपूर्व ग्रंथ रत्नों की रचना करके मुमुक्षु आत्माओं पर मातृवत् वात्सल्यपूर्ण हृदय से बडा भारी उपकार किया है। इससे स्पष्ट है कि उपाध्यायजी महाराज झूठ-प्रतिपादक
Shrenik/DIA-SHILCHANDRASURI / Hindi Book (07-10-2013)/(1st-11-10-2013) (2nd-22-10-2013) p6.5
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