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सद्धर्मसंरक्षक जोधपुर गाँव की बेटी थी। उसके मायकेवालों का गोत्र मान था । खेती-बाडी से उपज बहुत अच्छी थी। पर इस दम्पती को सन्तान का सुख नहीं था। बेटे का जन्म होता तो वह पंद्रह-सोलह दिनों का होकर मर जाता था । इस प्रकार कई सन्ताने होकर मर चुकी थी ।
एकदा दुलूआ गांव में एक साधुबाबा आ गया। उसकी वचनसिद्धि की बहुत प्रख्याति थी। टेकसिंह तथा कर्मोदेवी उस महात्मा के पास गये । भक्तिभाव से नमस्कार कर उसके सामने भेंट- दक्षिणा रख नतमस्तक होकर समीप में बैठ गये। बाबाने उनसे उदासी का कारण पूछा । उन्होने कहा कि "बाबाजी ! प्रभु का दिया हुआ हमारे यहाँ सब कुछ है । गृहस्थ के यहाँ जो भी सुखसामग्री चाहिये, उससे किसी प्रकार की भी कमी नहीं है। कमी है तो सन्तान की । हमारे यहाँ जो सन्तान जन्म लेती है, वह पन्द्रह-सोलह दिन की होकर मर जाती है। कृपा करके आप बतलावें कि हमारे भाग्य में पुत्र है अथवा नहीं ?" महात्माजी ने दोनों के चेहरो की तरफ एकटक देखकर अपनी आंखें बन्द कर लीं और ध्यानारूढ हो गये। कुछ ही क्षणों के बाद उन्होंने अपनी आंखें खोली और मुस्कराते हुए सहज भाव से बोले "चौधरी साहब! तुम चिन्ता मत करो । अब जो तुम्हारे घर बेटा जन्म लेगा, वह दीर्घजीवी होगा । किन्तु तुम्हारे पास रहेगा नहीं। छोटी उम्र में ही साधु हो जावेगा।" यह सुनकर दोनों बडे हर्षित हुए। बाबा के चरण छूकर बोले “बाबा !
१. यह महात्मा जैन धर्मानुयायी नहीं था, अन्यमती था। न तो इनका परिवार ही जैन था और न ही इस गाँव में किसी जैन धर्मानुयायी का कोई घर ही था। इसलिये यहाँ के लोग जैन साधु को जानते - पहचानते भी नहीं थे। कोई जैन साधु इस गाँव में आता-जाता भी नहीं था।
Shrenik/D/A-SHILCHANDRASURI / Hindi Book (07-10-2013) / (1st-11-10-2013) (2nd-22-10-2013) p6.5
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