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देता हूं। उसने एक दीया जलाया और अपने मित्र के हाथों में दिया। लेकिन जैसे ही वह मित्र दीये को लेकर सीढ़ियां उतरने लगा, उस साधु ने उस दीये को फूंक कर बुझा दिया! घुप्प अंधकार
और भी गहरा हो गया। उसके मित्र ने कहा, यह क्या किया? दीया दिया और बुझा भी दिया? उसके मित्र ने कहा, दूसरे का दीया काम नहीं पड़ता। अपनी ज्योति हो तो ही अंधकार से बचना है। अपनी ज्योति न हो, दूसरे के दीये काम नहीं पड़ते हैं। __मैं आपको कहूं, महावीर का दीया भी आपके काम नहीं पड़ सकता, जब तक कि आपके भीतर दीया अपना न जल जाए।
इस बात को महावीर ने बड़े अदभुत ढंग से कहा। इस बात को उन्होंने बड़े गहरे ढंग से कहा, बड़े गहरे ढंग से प्रतिपादित किया। उन्होंने कहा, परमात्मा के प्रसाद से भी कोई सत्य को नहीं पा सकता है। उन्होंने कहा, किसी गुरु-कृपा से कोई सत्य को नहीं पा सकता है। किसी के आशीर्वाद से, किसी से भिक्षा में, किसी से दान में, किसी से चोरी में सत्य को नहीं पाया जा सकता। सत्य को पाना हो तो स्वयं का श्रम करना होगा। इसलिए महावीर की परंपरा श्रमण परंपरा कहलाई। उसका अर्थ है कि अपनी मेहनत, और अपनी मेहनत के सिवाय और कोई रास्ता नहीं है। और जो अपनी मेहनत के सिवाय कोई रास्ता सोचता हो, उसके मन में चोरी है. उसके मन में भिक्षा है। और सब मिल जाए चोरी से, सत्य नहीं मिल सकता है। जो न चुराया जा सकता है जो न मांगा जा सकता है जो न छीना जा सकता है जिसे तो केवल अपने श्र से ही उपजाना होता है, ऐसे सत्य को पाने की जो परंपरा है, वह श्रमण परंपरा है। और मेरा मानना यह है कि सारी दुनिया में जब भी किन्हीं ने सत्य पाया है, तब वे श्रमण रहे हैं, तब उन्हें श्रम करना पड़ा है। मुफ्त में सत्य कभी किसी को उपलब्ध नहीं हुआ।
तो जिस महावीर ने यह कहा हो कि अपने ही श्रम और अपनी ही प्रतिष्ठा और अपने ही आधार पर खड़े होकर, अशरण, सारी शरण छोड़ कर जो व्यक्ति अपनी साधना में संलग्न होता है, वह सत्य को पाता है। उसका मानने वाला कोई कहता हो कि मेरी बात शास्त्र के विपरीत पड़ जाती है, तो मैंने कहा, सोचना तुम, मेरी बात शास्त्र के विपरीत नहीं पड़ती होगी, तुम्हारे विपरीत पड़ जाती होगी। और जिस दिन जानोगे भीतर, तो पाओगे कि जो मैं कह रहा हूं, वह मैंने चाहे शास्त्र देखा हो या न देखा हो, इससे भेद नहीं पड़ता। अगर सत्य कुछ है तो आपने कोई भी शास्त्र न देखा हो और अपने भीतर प्रविष्ट हो जाएं तो सारे शास्त्र देख लिए हो जाएंगे। और आपकी वाणी और आपका विचार और आपकी अनुभूति की गवाही सारे शास्त्र बन जाएंगे।
और जिसने शास्त्र सीखे हों, उनको दोहरा कर रट लिया हो, उनको स्मरण कर लिया हो, उनके सूत्रों को दोहरा कर समझाना शुरू कर दिया हो, उसका कोई मूल्य नहीं है। इसलिए मैंने कहा, शास्त्र नहीं, स्वयं-महावीर की प्रतिष्ठा है। स्वयं के प्रवेश को उनका आग्रह है।
और यह आग्रह, यह आग्रह इस पूरे मनुष्य के इतिहास में अलौकिक है, असाधारण है। इससे ज्यादा सम्मान मनुष्य को और किसी ने नहीं दिया, जितना महावीर ने दिया है। इससे ज्यादा सम्मान और गरिमा और गौरव, और किसी ने नहीं दिया मनुष्य को, जितना महावीर ने दिया है। क्योंकि महावीर ने कहा, परमात्मा कहीं ऊपर नहीं है, परमात्मा प्रत्येक के विकास का अंतिम चरण है। परमात्मा प्रत्येक के भीतर है।