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तो मैंने उनको कहा कि मुझे तो यह दिखाई पड़ता है कि महावीर की क्रांति शब्द के विपरीत है और निःशब्द के पक्ष में है, शास्त्र के विपरीत है और स्वयं के पक्ष में है। सारे शास्त्रों से और सारे सिद्धांतों के जाल से महावीर मुक्त करना चाहते हैं, ताकि आपका अंतर्गमन हो सके। शास्त्र बाहर हैं और सत्य भीतर है। जो शास्त्रों में खोजेगा, वह खोजेगा, पा नहीं सकेगा। और जो भीतर डूबेगा, वह पा लेगा।
एक बात और कहूं, जो भीतर पा लेता है, वही शास्त्र को समझ भी पाता है। क्योंकि जो भीतर अनुभव कर लेता है, अनुभव ही उन शब्दों के अर्थों को भी स्पष्ट कर जाता है। जो स्वयं को जानता है, वह शास्त्र को समझ पाता है। जो शास्त्र को ही समझता रहता है, वह कभी स्वयं को नहीं जान पाता।
महावीर की बुनियादी क्रांति शब्द के, सिंबल के विपरीत है, प्रतीक के विपरीत है। और अगर वे कहते हैं कि मेरी बात शास्त्र के विपरीत मालूम होती है, तो मैंने कहा, हो सकता है, मेरी बात महावीर के पक्ष में हो, इसलिए शास्त्र के विपरीत पड़ जाती हो। अब तक सारे शास्त्र, जिन्होंने सत्य जाना है, उनके विपरीत पड़ जाते हैं। यह बड़ी आश्चर्य की बात है! यह बहुत आश्चर्य की बात है, ऐसा हो जाता है और उसका कारण है। ___मैंने एक बाउल फकीर का एक गीत पढ़ा था। उसने अपने गीत में कहा है, जब कोई व्यक्ति धर्म की ज्योति को उपलब्ध होता है, तो उसके हाथ में ज्ञान की मशाल आ जाती है। उसकी मशाल से प्रभावित होकर न मालूम कितने अंधे और आंखहीन लोग उसके पीछे हो जाते हैं। उसके अनुग्रह में, उसके प्रेम में, उसके प्रकाश की संभावना में बहुत लोग उसके पीछे चलने लगत है। फिर वह आदमी एक दिन समाप्त हो जाता है। और जब वह आदमी गिरता है तो उसकी मशाल भी गिर जाती है। और तब कोई अंधा उनमें से जो पीछे उसके हो गए थे उर मशाल को उठा लेता है। लेकिन दुर्घटना यह हो जाती है, उस मशाल में जो ज्योति थी, वह डंडे में नहीं थी। उस मशाल में जो ज्योति थी, वह उस आदमी के प्राणों में थी, जो उसे पकड़े था। उस ज्योति को अपने प्राणों से वह जलाए था। उसके गिरते ही ज्योति तो बुझ जाती है, डंडा हाथ
। है। और अंधे उस डंडे को लेकर चलते हैं। वह जो धर्म का डंडा है, उसे लेकर चलते हैं, जिसकी ज्योति बुझ जाती है। इसलिए ये डंडे आपस में टकराते हैं।
बहुत से अंधे हैं जमीन पर। बहुत से अंधे उन डंडों को लिए हैं। और वे सारे अपनेअपने डंडों को लेकर अंधेरे में चल रहे हैं। इसलिए उनकी आपस में टक्कर हो जाती है। धर्मों की कहीं टक्कर हो सकती है? दो धर्म कहीं लड़ सकते हैं?
लेकिन धर्म लड़ते हुए मालूम पड़ते हैं। इसका अर्थ है कि वहां धर्म नहीं होगा, वहां डंडे रह गए हैं अंधे आदमियों के हाथों में। और अंधे अंधों का नेतृत्व करते हैं! यह दुर्भाग्य है, और यह सदा होता रहा है, और इसके पीछे कारण है।
इसके पीछे कारण है। जो व्यक्ति भी यह सोचता हो कि दूसरे की ज्योति से मैं चल सकता हूं, वह गलती में है। अपनी ज्योति से ही केवल चलना होता है।
एक साधु एक संध्या को अपने एक मित्र साधु को विदा करता था। रात अंधकार से भरी थी। उसके मित्र ने कहा, इस अंधेरे में मैं कैसे जाऊं? उसके दोस्त साधु ने कहा, मैं दीया जला
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