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स्व को देखा तो नहीं जा सकता है। स्व को देखना पर को देखना है। स्व तो द्रष्टा है। वह तो देखने वाला है। वह दृश्य में परिणत नहीं हो सकता है। इसलिए स्व भी नहीं दिखता है, कोई भी दृश्य नहीं है, तब जो है, वही मैं हूं।
शुद्ध चैतन्य का अनुभव आत्मानुभव है।
मैं पर से घिरा हूं, इसलिए पूछूगा कि आत्मानुभव के लिए पर को अनुपस्थित कैसे करूं? वह तो सदा घेरे हुए है?
पर 'पर' तो आंख बंद करते ही अनुपस्थित हो जाता है, इसलिए वह कोई समस्या नहीं है। विचार है वास्तविक समस्या। पर के जो प्रतिबिंब, जो प्रतिफलन चित्त पर छूट जाते हैं और हमें घेरे रहते हैं, वे ही समस्या हैं। उनको ही जानते रहने से हम उसे नहीं जान पाते हैं जो कि उनको भी जान रहा है। विचार, थॉट्स के कारण चेतना, कांशसनेस नहीं ज्ञात हो पाती है। विचार-प्रवाह, थॉट प्रोसेस का जो साक्षी है, उसमें जागना है। साक्षी में जागना, साक्षी को जगाना है। यही ध्यान, मेडीटेशन है।
विचार के अमूर्च्छित दर्शन, राइट माइंड से, विचार-प्रवाह के प्रति सम्यक जागरण से क्रमशः विचार-प्रवाह में जो अंतराल, इंटरवल्स हैं उनका अनुभव होता है। वे रिक्त स्थान क्रमशः बड़े होते जाते हैं। विचार को मात्र देखने भर से, केवल उसका द्रष्टा बनने से, बिना किसी दमन
और संघर्ष के वह विसर्जित होता है। विचार-प्रवाह का दर्शन, अवेयरनेस विचार-शून्यता, थॉटलेसनेस पर, और विचार के अतीत ले जाता है।
_ विचार का शून्य हो जाना ध्यान है। विचार-शून्यता में सच्चिदानंद का अनुभव समाधि है। समाधि सत्य-दर्शन है।
समाधि की अनुभूति सत्य है। समाधि का व्यवहार अहिंसा है।
समाधि में दिखता है कि जो है, अमृत है। मृत्यु का भ्रम विसर्जित हो जाता है। मृत्यु के साथ भय चला जाता है और अभय उत्पन्न होता है। अभय से अहिंसा प्रवाहित होती है।
समाधि में स्व से पहुंचा जाता है, पर उसमें पहुंच कर आत्म और अनात्म विलीन हो जाते हैं। वह भेद विचार का था। समाधि भेद और द्वैत के अतीत है। वह अद्वय और अद्वैत है। जैसे बाती दीए के तेल को जला कर स्वयं भी जल जाती है, वैसे ही स्व भी पर से मुक्त करके स्वयं से भी मुक्त कर जाता है। मैं की मुक्ति, मैं से भी मुक्ति है।
समाधि ब्रह्म-साक्षात है। ब्रह्मानुभूति से ब्रह्मचर्य स्पंदित होता है। ब्रह्मचर्य का केंद्र सत्य और परिधि अहिंसा है। समाधि में सत्य के फूल लगते और अहिंसा की सुगंध फैलती है।
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