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मैं अनुभव करता हूं कि हम केवल स्वरूप को ही चाहते और चाह सकते हैं। और यदि हम अपनी चाह को समझ लें, तो उस चाह में ही हम स्वरूप की ओर छिपे इंगित पा सकते हैं।
मैं प्रेम चाहता हूं, अर्थात मेरा स्वरूप प्रेम है। मैं आनंद चाहता हूं, अर्थात मेरा स्वरूप आनंद है। मैं अमृतत्व चाहता हूं, अर्थात मेरा स्वरूप अमृत है। मैं प्रभुत्व चाहता हूं, अर्थात मेरा स्वरूप प्रभु है।
और स्मरण रखना है कि जो मैं चाहता हूं, वही प्रत्येक चाहता है। हमारी चाहें कितनी समान हैं। और तब क्या हमारी समान चाहें हमारे समान स्वरूप की उदघोषणा नहीं हैं?
_ 'मैं' और 'न मैं' में जो बैठा है, वह भिन्न नहीं है। इस अभिन्न चेतना की आकांक्षा अप्रेम, हिंसा के लिए नहीं है। इसलिए मैंने कहा कि हिंसा नकारात्मक है, क्योंकि वह स्वभाव-विरोध है। और जो नकारात्मक, निगेटिव होता है, वह विध्वंसात्मक, डिस्ट्रक्टिव होता है। अप्रेम विध्वंस शक्ति है। वह मृत्यु की सेविका है। उस दिशा से चलने वाला निरंतर गहरे से गहरे विध्वंस और मृत्यु और अंधेरे में उतरता जाता है। वह मृत्यु है, क्योंकि वह स्वरूप-विपरीत आयाम, डायमेंशन है।
अहिंसा जीवन की घोषणा है। प्रेम ही जीवन है।
अहिंसा शब्द में हिंसा की निषेधात्मकता का निषेध, निगेशन ऑफ निगेशन है। और मैंने सुना है कि निषेध के निषेध से विधायकता, पाजिटिविटी फलित होती है। शायद अहिंसा शब्द में उसी विधायकता की ओर संकेत है। फिर, शब्द की खोल तो निस्सार है। शब्द की राख के पीछे जो जीवित आग छिपी है, उसे ही जानना है। वह आग प्रेम की है। और प्रेम सृजन है। अप्रेम को मैंने विध्वंस कहा है प्रेम को सजन कहता हं। जीवन में प्रेम ही सजन का स्रोत
और सृजनात्मकता के चरम स्रोत और अभिव्यक्ति के कारण ही क्राइस्ट प्रेम को परमात्मा या परमात्मा को प्रेम कह सके हैं। सच ही सृजनात्मकता, क्रिएटिविटी के लिए प्रेम से अधिक श्रेष्ठ और ज्यादा अभिव्यंजक अभिव्यक्ति खोजनी कठिन है।
मैं देखता हूं कि यदि अहिंसा की यह विधायकता और स्वसत्ता दृष्टि में न हो, तो वह केवल हिंसा का निषेध होकर रह जाती है। हिंसा न करना ही अहिंसा नहीं है, अहिंसा उससे बहुत ज्यादा है। शत्रुता का न होना ही प्रेम नहीं है, प्रेम उससे बहुत ज्यादा है। यह भेद स्मरण न रहे तो अहिंसा-उपलब्धि केवल हिंसा-निषेध और हिंसा-त्याग में परिणत हो जाती है।
इसके परिणाम घातक होते हैं। नकार और निषेध की दृष्टि जीवन को विस्तार नहीं, संकोच देती है। उससे विकास और मुक्ति नहीं, कुंठा और बंधन फलित होते हैं। व्यक्ति फैलता नहीं, सिकुड़ने लगता है। वह विराट जीवन ब्रह्म में विस्तृत नहीं, क्षुद्र में और अहं में सीमित होने लगता है। वह सरिता बन कर सागर तक पहुंच जाता, लेकिन सरोवर बन सूखने लगता है। अहिंसा को जगाना सरिता बनना है, केवल हिंसा-त्याग में उलझ जाना सरोवर बन जाना है। नकार की साधना श्री और सौंदर्य और पूर्णता में नहीं, कुरूपता और विकृति में ले जाती है। वह मार्ग छोड़ने का है, पाने का और मर जाने का नहीं। जैसे कोई स्वास्थ्य का साधक मात्र बीमारियों से बचने को ही स्वास्थ्य-साधना समझ ले, ऐसी ही भूल वह भी है।
गायकता
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