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चाहिए। तो उसने कहा था, यह तो बहुत कठिन है, क्योंकि घृणा तो अब मेरे भीतर है ही नहीं। अब तो केवल प्रेम है, चाहे शैतान हो और चाहे ईश्वर, उसके सिवाय देने को अब मेरे पास कुछ भी नहीं है। मैं तो उन दोनों में शायद अंतर भी नहीं कर पाऊंगा, क्योंकि प्रेम की आंख कब अंतर कर पाई है?
यह जब मैं सुनता हूं कि दूसरों पर दया करना अहिंसा है, तो सच ही मुझे बहुत हैरानी होती है। अहंकार कैसे-कैसे मार्ग अपनी तृप्ति के निकाल लेता है! उसकी आविष्कार क्षमता अदभुत है। अहिंसा का वस्तुतः किसी से कोई संबंध नहीं है, वह आत्म-उदभूत प्रकाश है। जिन पर वह पड़ता है उन्हें जरूर प्रेम और करुणा का अनुभव हो सकता है, लेकिन उस दृष्टि से वह चेष्टित नहीं है। यह भी सुनता हूं कि अहिंसा करनी चाहिए, जैसे वह भी कोई क्रिया है, जो कि की और न की जाती है। कभी-कभी सुंदर दिखने वाले उपदेश कितने व्यर्थ और अज्ञानपूर्ण हो सकते हैं, ऐसी बातें सुन कर उनका पता चलता है। प्रेम क्रिया, एक्टिविटी नहीं है, वह सत्ता की एक स्थिति, स्टेट ऑफ बीइंग है। प्रेम किया नहीं जाता है, प्रेम में हुआ जाता है। वह संबंध नहीं, सदभाव है।
यह बोध भी हो कि मैं प्रेम कर रहा हूं, तो वह प्रेम नहीं है। प्रेम या आनंद जब स्वभाव होते हैं, तो उनकी उपस्थिति का अनुभव कि मैं प्रेम कर रहा हूं, क्रिया और सत्ता में भेद का सूचक है। वह भेद यदि उपस्थित है, तो प्रेम चेष्टित है, सत्ता निष्पन्न नहीं है। और वैसा प्रेम प्रेम नहीं है। प्रेम जब संपूर्ण सत्ता से, संपूर्ण व्यक्तित्व, टोटल पर्सनैलिटी से आविर्भूत होता है, तो उसके पीछे उसे जानने वाला कोई नहीं रह जाता है। कोई प्रेम करने वाला नहीं होता है, केवल
प्रेम ही होता है।
मैं अहिंसा से प्रेम का अर्थ लेता हूं। वह प्रेम की शुद्ध और पूर्ण अनुभूति है। प्रेम में जो किसी से संबंधित होने का भाव है, उस भाव के दूर करने के हेतु ही अहिंसा के नकारात्मक शब्द का प्रयोग होता रहा है। उस नकारात्मकता में प्रेम का निषेध नहीं है, निषेध है केवल प्रेम के एक संबंध, रिलेशनशिप होने का। प्रेम संबंध नहीं, स्थिति, स्टेट ऑफ कांशसनेस है, इस सत्य पर जोर देने के लिए अहिंसा शब्द का प्रयोग हुआ है। पर जो उसे प्रेम का ही अभाव समझ लेते हैं, वे बहुत बड़ी भूल कर देते हैं। वह प्रेम का अभाव नहीं है, केवल उनका अभाव है, जो प्रेम को परिपूर्ण और परिशुद्ध नहीं होने देते हैं। वह उन तत्वों का अभाव अवश्य है, जो उसे संबंध की स्थिति से सत्ता की स्थिति तक नहीं उठने देते हैं। वह राग, विराग, आसक्ति, विरक्ति का अभाव है। इन बंधनों से ऊपर उठ कर प्रेम वीतराग हो जाता है। ___मैं वीतराग प्रेम को ही अहिंसा कहता हूं। अहिंसा प्रेम है, और इसलिए वह नकारात्मक नहीं है। अहिंसा शब्द नकारात्मक है, पर अहिंसा नकारात्मक नहीं है। वह भावस्थिति अत्यंत विधायक, पाजिटिव है। उससे अधिक विधायक और कुछ भी नहीं हो सकता है। प्रेम से अधिक जीवंत और विधायक और हो भी क्या सकता है?
प्रेम-अभाव हिंसा ही नकारात्मक, निगेटिव है, क्योंकि वह स्वभाव-विरोध है। मैं अपने प्रति अप्रेम, हिंसा नहीं चाहता हूं, और कोई भी नहीं चाहता है। प्रत्येक प्रेम का प्यासा क्यों है? अप्रेम की प्यास क्यों किसी को नहीं है?
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