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कि जो दुकान पर बैठा है उसकी सुख की खोज की यात्रा चल रही है अकेले। जो धन कमा रहा है उसकी यात्रा चल रही है। नहीं, ऐसा नहीं है। जो मंदिर में प्रार्थना कर रहा है, जो भगवान के चरण पकड़ कर कामना कर रहा है, जो उपवास कर रहा है, भूखा हो रहा है, जप-तप कर रहा है, हो सकता है उसकी भी सुख की ही यात्रा चल रही हो।
यही तो वजह है कि सारी दुनिया के धर्मों ने स्वर्ग की कल्पना कर रखी है। और वहां सारे सुख की व्यवस्था कर दी है उन सबके लिए जो यहां सुख की कामना में दुख उठाने को तैयार होंगे। जो यहां स्त्रियों का त्याग कर देंगे, स्वर्ग में अप्सराओं की उनके लिए व्यवस्था है।
और जो यहां शराब को छोड़ देंगे, स्वर्ग में शराब के झरने बहते हैं। वहां कोई मनाही नहीं है, वहां की हुकूमत की कोई रुकावट नहीं है। वहां झरने ही बहते हैं, पानी मिलना कठिन है। शराब ही मिलती है। और यहां तो कामनाएं हम करते हैं तो पूरी नहीं होतीं। बड़ा कष्ट उठाते हैं, फिर भी अधरी रह जाती हैं। तष्णा दष्पर है. यह अनभव आता है। लेकिन जो यहां कही हई बातों को मानने को, गंगा में, यमुना में स्नान करने को, तीर्थों की यात्रा करने को, पंडों को, पुरोहित को मानने को, पूजने को, मंदिर और मस्जिद की दूकानों में साझेदारी करने को, चलते हुए धर्म के नाम पर शोषित होने को तैयार होंगे, उनके लिए व्यवस्था है स्वर्ग में कल्प-वक्षों की। उनके नीचे बैठ कर ही कामनाएं तृप्त हो जाएंगी। कामनाएं करते ही तृप्त हो जाएंगी। करने में और उनकी तृप्ति में कोई क्षण का भी अवकाश और अंतर नहीं होगा। किया और भाव किया और कामना पूरी हो जाएगी।
तो सुख के खोजी दुकान पर ही बैठे हैं, ऐसा मत सोचना। उन्होंने मंदिरों और मस्जिदों को भी दुकानों में बदल दिया है। सुख के खोजी इस संसार में ही सुख खोजते हैं, ऐसे खयाल में मत रहना। ऐसी गहरी निद्रा के लोग भी हैं कि परलोक में भी सुख की कामना और व्यवस्था यहीं से करना शुरू कर देते हैं। मध्य युग में ईसाई पादरी और पोप टिकट तक बेचते रहे स्वर्ग के, यहीं खरीद लिए जाएं।
__ हमें हंसी आती है, लेकिन यहां भी यही होता है। यहां भी हम ब्राह्मण को मरते वक्त गाय दान कर देते हैं कि वह वैतरणी पार करा देगी वहां परलोक में। यहां हम ब्राह्मण देवता को देते हैं ताकि वहां बैठा हुआ देवता हमें बहुत दे। यहां हम किसी भगवान के पैरों में सिर रख कर झुकते हैं, नमस्कार करते हैं, स्तुति करते हैं। ताकि वह प्रसन्न हो, खुशामद से प्रसन्न हो और वहां कुछ दे।
यह लेन-देन की कल्पना दूकानदार की दुकान पर समाप्त नहीं होती, धर्म में भी प्रविष्ट हो जाती है। और जैसे दूकानदार बड़ी तपश्चर्या करता है, धूप में भी बैठता है, भूखा भी बैठता है, कष्ट भी सहता है, उपद्रव भी सहता है, सब सह कर भी सुख की खोज करता रहता है। वैसे ही अगर यह दूकानदार कभी संन्यासी हो जाए-और दुनिया में बहुत से दूकानदार संन्यासी हो गए हैं तो वह वहां भी यही सब कष्ट झेलने को तैयार है। बड़े कष्ट झेलने को तैयार है। क्योंकि उसकी कामना और आशा का सुख अगर निश्चित हो तो वह सब करने को तैयार है। आप छोटे-मोटे सुख से तृप्त हो जाते हैं, उसे बड़ा शाश्वत सुख चाहिए। उसे ऐसा सुख चाहिए जो फिर नष्ट न हो। उसे ये छोटे-मोटे सुख जो नष्ट हो जाते हैं, इनकी कामना नहीं
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