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एक यहूदी साधु अपनी मोनेस्ट्री में, अपने आश्रम में अध्ययन के लिए गया हुआ था। उसका एक मित्र भी उसके साथ है। वे दोनों जवान हैं, वे दोनों साधना के लिए गए हुए हैं। लेकिन दोनों को सिगरेट पीने की आदत है। और बड़े परेशान हैं कि आश्रम में क्या होगा! सिगरेट पीने तो मिलेगी नहीं वहां! और मोनेस्ट्री चारों तरफ से बंद है। चौबीस घंटे भीतर रहना होता है। बाहर जाने की आज्ञा भी नहीं है। लेकिन सांझ को एक घंटे के लिए नदी के किनारे घूमने की आज्ञा मिलती है। वह भी ईश्वर-चिंतन के लिए कि जाओ नदी के किनारे घंटे भर ईश्वर-चिंतन करो। सोचा कि चलो वहीं सिगरेट पी लेंगे। लेकिन फिर खयाल आया कि साधु बनने आए हैं, आश्रम में प्रवेश लिया है, झूठ करें, चोरी करें, यह तो ठीक नहीं। सोचा गुरु से पूछ लें, आज्ञा ले लें। दोनों अपने गुरु के पास गए।
एक व्यक्ति गुरु के पास गया और गुरु ने फौरन कहा कि नहीं-नहीं, सिगरेट पीने की आज्ञा नहीं मिल सकती। वह दुखी वापस लौटा। अब तो चोरी करने का भी उपाय न रहा। वह जब वापस लौटा नदी के किनारे तो देखा कि घास पर बैठा हुआ उसका पहला मित्र तो सिगरेट पी रहा है। तो उसने पूछा कि क्या तुमने बिना पूछे सिगरेट पीनी शुरू कर दी? उसने कहा कि नहीं, मैंने पूछा और गुरु ने कहा, हां पी सकते हो। उसकी आंख से तो चिंगारी गिरने लगी जिससे इनकार किया गया था। उसने कहा, यह क्या, यह क्या भेद है! मैंने पूछा, मुझे तो एकदम गुस्से में कहा कि नहीं-नहीं, नहीं पी सकते हो। तुम्हें कैसे आज्ञा दी! चलो उठो मेरे साथ वापस।
वह दूसरा युवक हंसने लगा। और उसने कहा, क्या मैं पूछ सकता हूं तुमने गुरु से क्या पूछा था? उस युवक ने कहा, मैंने पूछा था-पूछना क्या था, सीधी बात थी—मैंने पूछा कि क्या मैं ईश्वर-चिंतन करते समय सिगरेट पी सकता हूं? उन्होंने कहा, नहीं-नहीं, बिलकुल नहीं। तुमने क्या पूछा था? उस युवक ने कहा, मैंने पूछा था क्या मैं सिगरेट पीते समय ईश्वर-चिंतन कर सकता हूं? उन्होंने कहा, हां!
इतना सा फर्क! कोई फर्क भी नहीं है। क्या फर्क है इसमें कि एक आदमी ईश्वर-चिंतन करते वक्त सिगरेट पीता है कि सिगरेट पीते वक्त ईश्वर-चिंतन करता है! यह बात तो बिलकुल एक है। लेकिन नहीं, फर्क है। बुनियादी फर्क है। और एक के उत्तर में हां मिल सकता है और दूसरे के उत्तर में न मिल सकता है। जमीन पर कौन होगा जो कहेगा कि आप ईश्वर-चिंतन करते समय सिगरेट पीएं। कोई भी नहीं कहेगा। लेकिन कोई पूछता है क्या मैं सिगरेट पीते वक्त ईश्वर-चिंतन कर सकता हूं, कौन मना करे। कौन मना करे, इसमें मना करने की बात क्या है! अच्छा ही है, सिगरेट पी रहे हो वह तो ठीक है, कम से कम ईश्वर-चिंतन तो कर रहे हो।
अहिंसा और प्रेम में ऐसा ही फर्क है। भाषा-कोश में फर्क नहीं है। व्याकरण में फर्क नहीं होगा। शब्द के जो जानकार हैं, वे कहेंगे एक ही बात है। लेकिन एक ही बात नहीं है।
प्रेम के उत्तर में जीवन और हो जाएगा। अहिंसा के उत्तर में जीवन और हो जाएगा। अहिंसा के उत्तर में स्वार्थ पैदा होगा। प्रेम के उत्तर में परार्थ पैदा होगा। अहिंसा के उत्तर में व्यक्ति अहंकारी होगा-अपनी खोज, मेरी खोज, मैं। और प्रेम की खोज में व्यक्ति मिटता चला जाएगा, शून्य हो जाएगा, न हो जाएगा।
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