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________________ पास क्या है, जिसे कोई छीन लेगा! संन्यासी के पास क्या है, जिसे कोई मिटा देगा! संन्यासी के पास क्या है, जिसके लिए वह चिंतित हो, असुरक्षित अनुभव करे! वह कुछ चिंतित हुआ, हैरान हुआ। फिर आज तक यह बूढ़ा संन्यासी कभी नहीं पूछा, बड़े घने जंगलों में से निकलना पड़ा; अंधेरी रातों में रुकना पड़ा; बीहड़ रास्ते थे, निर्जन मार्ग थे, इसने कभी नहीं पूछा कि खतरा तो नहीं है कोई: आज क्या हो गया? थोड़ी दूर और, फिर उस वृद्ध संन्यासी ने पूछा कि रात बढ़ती जाती है, गांव पता नहीं कितनी दूर है; दीये भी दिखाई नहीं पड़ते-कोई खतरा तो नहीं है? फिर वे एक कुएं पर रुके। और वृद्ध संन्यासी ने झोला दिया युवा संन्यासी को और कहा, मैं हाथ-मुंह धो लूं, झोला संभाल कर रखना! तब युवा संन्यासी को लगा कि खतरा जरूर झोले के भीतर होना चाहिए। उसने झोले के भीतर हाथ डाला-बूढ़ा तो पानी खींचने लगा कुएं से—उसने झोले के भीतर हाथ डाला तो देखा सोने की एक ईंट है। समझ गया खतरा कहां है। उसने वह ईंट निकाल कर बाहर फेंक दी, एक पत्थर की ईंट उठा कर झोले के भीतर रख दी। बूढ़े संन्यासी ने जल्दी से पानी-वानी पीया, जल्दी से आकर झोला लिया-ठीक से पानी भी नहीं पी पाया बेचारा! कब कौन पी पाता है जिनके पास सोने की ईंटें होती हैं? कोई पी पाता है पानी ठीक से? और अगर किसी को ठीक से पानी पीते देख लें, तो वे कहेंगे, महान अदभुत आदमी है, यह बड़ा महापुरुष है! शांति से पानी पी रहा है, शांति से खाना खा रहा है, शांति से सो रहा है! ये साधारण सी बातें महापुरुष जैसी मालूम होने लगती हैं जो कि हर एक आदमी में होनी चाहिए, क्योंकि हम बिलकुल विक्षिप्त और पागल हैं। उस पागलपन की वजह से थोड़ी सी भी शांति बहुत मालूम होती है। उसने जल्दी से झोला लिया. कंधे पर टांग लिया. फिर छाती से लगा लिया. फिर चलने लगा। उस बेचारे को पता भी नहीं है कि अब वह जो छाती से लगाए हुए है, वह पत्थर की एक ईंट है! किसको पता है कि आप जिसको छाती से लगाए हुए हैं, वह सोने की है या पत्थर की है? जो जानते हैं, वे कहते हैं पत्थर की; जो नहीं जानते हैं, वे कहते हैं सोने की। फिर वह आगे बढ़ गया। फिर पूछने लगा। रात और बढ़ गई है, खतरा और बढ़ गया। उसने पूछा कि कोई खतरा तो नहीं है? उस युवा ने कहा, आप बेफिकर हो जाएं, खतरे को मैं पीछे फेंक आया हूं। वह तो घबड़ा गया। जल्दी से झोले में हाथ डाला, ईंट निकाली, पत्थर की ईंट थी! एक क्षण तो सन्नाटा हो गया उस जंगल में। फिर वह वृद्ध हंसने लगा। ईंट निकाल कर उसने बाहर फेंक दी। फिर कहने लगा, अब यहीं सो जाएं, अब गांव तक जाने की क्या जरूरत! फिर वे वहीं सो गए। फिर सुबह जब वे उठे तो उस युवा ने पूछा, आप महान त्यागी हैं, आपने ईंट निकाल कर झोले से बिलकुल बाहर फेंक दी! आपने महान त्याग किया। वह बूढ़ा कहने लगा, त्याग कहां पागल! जब ईंट दिखाई पड़ गई कि पत्थर है, तो त्याग क्या? छूट गई, व्यर्थ हो गई। त्याग तो उसका करना होता है, जो स्वर्ण की मालूम पड़ती है। महावीर ने जो छोड़ा है, वह मिट्टी दिखाई पड़ने लगा है। उसका कोई त्याग नहीं किया गया है-छूट गया, जैसे मिट्टी छूट जाती है। लेकिन भक्तगण चिल्ला रहे हैं कि हे महात्यागी! हे 118
SR No.009968
Book TitleMahavir ya Mahavinash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRajnish Foundation
Publication Year2011
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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