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छोड़ सकता, महावीर मकान छोड़ रहे हैं! मैं भूखा नहीं रह सकता, महावीर उपवास कर रहे हैं! हम एकदम चकित हो जाते हैं और हम कहते हैं, धन्य है भगवान ! तुम बड़े तपस्वी हो। तुम दुख को अंगीकार कर लेते हो। तुम सुख के त्यागी हो। तुम दुख को वरण करते हो। तुम तपस्वी हो, तुम तपश्चर्या में जाते हो; हम भोगी हैं, हम दीन-हीन हैं, हम पापी हैं, तुम पुण्यात्मा हो।
लेकिन चीज बदल गई हमारे देखने से। महावीर न तो त्यागी हैं, न तपस्वी हैं; न धन को छोड़ रहे हैं, न कुछ और छोड़ रहे हैं। महावीर के भीतर कुछ और घटित हो रहा है; उस और घटित को हम इस भांति देख रहे हैं! यह हमारा एटिट्यूड है, यह महावीर के जीवन की घटना नहीं। महावीर त्यागी नहीं हैं, महावीर ज्ञानी हैं।
इसको थोड़ा समझ लें, तो उनकी जिंदगी के भीतर घुसना आसान हो जाएगा। ऐसे तीन सूत्रों पर मैं आपसे बात करना चाहूंगा, जो उनके अंतस-जीवन में प्रवेश करवा दें।
महावीर त्यागी नहीं, ज्ञानी हैं। लेकिन हम कहते हैं, महावीर त्यागी हैं। और हम जयजयकार करते हैं कि महावीर जैसा त्यागी नहीं हआ। शायद आपको पता ही नहीं है, त्याग सिर्फ अज्ञानी करते हैं, ज्ञानी कभी त्याग नहीं करता। क्यों ऐसा मैं कह रहा हूं? घबड़ाहट होगी आपको, बेचैनी होगी, मैं क्यों ऐसा कह रहा हूं? मैं इसलिए ऐसा कह रहा हूं कि ज्ञानी को तो व्यर्थ दिखाई पड़ जाता है संसार। जो व्यर्थ है, उसे छोड़ना नहीं पड़ता, वह छूट जाता है। अज्ञानी को छोड़ना पड़ता है, उसे व्यर्थ दिखाई नहीं पड़ता; वह कोशिश कर-करके छोड़ता है।
महावीर छोड़ते नहीं, छूट जाता है।
ज्ञान में त्याग अपने आप आ जाता है छाया की तरह; अज्ञान में त्याग लाना पड़ता है। अज्ञान के जीवन में त्याग है झाड़ से कच्चे पत्ते तोड़ने जैसा, जबरदस्ती पत्ते तोड़े जाते हैं। पत्ता पीड़ित होता है, शाखा पीड़ित होती है, घाव छूट जाता है पीछे, वृक्ष के प्राण पर चोट लगती है।
और त्याग ज्ञानी का-छूटने वाला, छोड़ने वाला नहीं-वह सूखे पत्ते की भांति वृक्ष से गिर जाता है, न वृक्ष को खबर लगती कि कब पत्ता गिर गया, न पत्ते को पता चलता कि कहीं से टूट गया हूं, न कहीं दुनिया में कोई खबर आती, चुपचाप, मौन, कोई हवा का एक झोंका और पत्ता चुपचाप नीचे बैठ जाता है।
___ महावीर ज्ञानी हैं, लेकिन हमें त्यागी दिखाई पड़ते हैं, क्योंकि हम भोगी हैं। वह जो हमारा भोग है, उस भोग के कारण हमें त्याग दिखाई पड़ता है, महावीर का ज्ञान दिखाई नहीं पड़ता। महावीर छोड़ नहीं रहे हैं, महावीर को चीजें व्यर्थ दिखाई पड़ गईं। और जब व्यर्थ दिखाई पड़ जाती है, उसको छोड़ना पड़ता है?
एक रात एक जंगल से दो संन्यासी निकल रहे हैं। एक वृद्ध संन्यासी है, युवा संन्यासी उसके साथ पीछे है। वृद्ध एक झोला लटकाए हुए है कंधे से, छाती से दबा कर पकड़े हुए है झोले को। रात पड़ने लगी, अंधेरा उतरने लगा। तो उसने पूछा युवा संन्यासी से, कोई भय तो नहीं है? जंगल खतरनाक मालूम होता है, रास्ता बीहड़ मालूम होता है। कोई खतरा तो नहीं है?
युवा संन्यासी बहुत हैरान हुआ, क्योंकि संन्यासी को खतरा कैसा? खतरा होता है उनको, जो संन्यासी नहीं हैं। संन्यासी को खतरा कैसा! संन्यासी को भय कैसा! संन्यासी के
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