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विवेक का अर्थ है परिपूर्ण जागरूक, पूर्ण जागरूकता से भरे हुए। समस्त शरीर की क्रियाओं के प्रति, मन की समस्त क्रियाओं के प्रति होश से भरे हुए। मन के प्रति जागरूक बनो, साक्षी बनो। मन से लड़ो मत, विचार के प्रवाह के प्रति द्रष्टा बनो। तटस्थ द्रष्टा बनो, केवल देखते रह जाओ। विचार को विसर्जित नहीं करना है, केवल विचार को देखते रह जाओ। मात्र द्रष्टा रह जाओ, कुछ करो नहीं। केवल होश से भर कर विचार के प्रवाह को देखो-अलिप्त, असंग-भाव से। जैसे राह पर लोग निकलते हैं, जैसे राह पर राहगीर निकलते हैं और मैं किनारे खड़ा चुपचाप देख रहा हूं।
मन के मार्ग पर चलते हुए विचार की परंपरा को, मन के मार्ग पर चलते हुए विचार की भीड़ को चुपचाप खड़े होकर देखते रहने का प्रयोग करना होता है। लड़ना नहीं होता, उनको छेड़ना नहीं होता, उनको रोकना नहीं होता, उनको धक्के नहीं देने होते, उस पर शुभ और अशुभ के निर्णय नहीं लेने होते, उनका कंडेमनेशन नहीं करना होता क्योंकि जैसे ही हमने उनके साथ कुछ किया, प्रवाह तीव्र और त्वरित हो जाएगा-केवल देखना होता है, मात्र द्रष्टा का प्रयोग करना होता है। और क्रमशः जिस मात्रा में भीतर मूर्छा टूटेगी और विचार के प्रवाह के प्रति जागरूकता आएगी, उसी मात्रा में विचार विलीन होने लगते हैं।
सी.एम. जोड पश्चिम का एक बड़ा विचारक था। उसने लिखा है, मैं जीवन भर विचारों से भरा रहा। एक दफा एक मनोविश्लेषक के पास गया। उसने पर्दे के पीछे मुझे एक कोच पर लिटा दिया, पर्दे के दूसरी तरफ खुद खड़ा हो गया और मुझसे बोला, जो भी विचार चित्त में आ रहे हों, उन्हें देख कर जोर से बोलते चले जाओ। जोड ने लिखा है, मैंने भीतर देखा कि जो विचार आएं, उनको बोलूं। मैं भीतर देखने लगा, टटोलने लगा, लेकिन मैं बहुत हैरान हो गया, वहां कोई विचार आ ही नहीं रहा था। वहां कोई विचार आ ही नहीं रहा था! जोड ने लिखा, मैं चकित हो गया। जीवन में सोते-जागते जिनका प्रवाह नहीं टूटा था, आज मैं खोजने गया था भीतर और वे नदारद थे, वे अनुपस्थित थे! भीतर आंख पहुंची और विचार नहीं थे!
__ जैसे प्रकाश अंधेरे को नहीं देख पाता, वैसे ही जब भीतर आंख पहुंचेगी, भीतर देखने का प्रयास पहुंचेगा, भीतर जागरूकता पहुंचेगी तो विचार शून्य हो जाएंगे, उनकी सांसें टूट जाएंगी, उनके प्राण चले जाएंगे।
सतत उठते-बैठते, सोते-जागते विचार के प्रति जो तंद्रा है, उसको तोड़ना ध्यान है, उसके प्रति जागरूक होना ध्यान है।
बुद्ध के जीवन में एक उल्लेख है, वह मैं कहूं, उससे मेरी बात समझ में आ सकेगी।
बुद्ध के पास एक राजकुमार दीक्षित हुआ। उसका नाम श्रोण था। दीक्षा के दूसरे दिन बुद्ध ने कहा, मेरी एक श्राविका है, उसके घर जाकर भिक्षा ले आना। वह श्राविका के घर भिक्षा लेने गया। उसे उसके सारे जीवन की स्मृतियां कौंध गईं आंखों में। कल तक राजकुमार था, आज उसी मार्ग पर भिक्षा का पात्र लिए चलता था! स्वाभाविक था, पूरा जीवन उसे दोहर जाए। उसे मार्ग में यह भी स्मरण आया, कल तक घर में पत्नी थी, मां थी, जो कुछ प्रिय था भोजन वह उपलब्ध होता था। आज कोई न जानेगा-न मालूम क्या मिलेगा! उसे सारे सुस्वादु भोजन, जो कि उसे सदा प्रिय रहे, स्मरण आए।
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