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ज्यों था त्यों ठहराया
ही तेज दौडूं, यह छाया है कि पीछा नहीं छोड़ती! फिर जन्मों-जन्मों दौड़ो, तो भी यह पीछा नहीं छोड़ेगी। रुको--और गौर से देखो। जाग कर देखो: इस अहमक अहमदाबादी का कोई अस्तित्व नहीं है। न तो यह चंदूलाल का पिता है--और न ढब्बूजी का चाचा। यह है ही नहीं। बहरूपी कैसे होगा? हम लड़ते हैं, तो बहरूपी हो जाता है। एक रूप हराते हैं, तो भ्रांति दूसरे रूप में खड़ी हो जाती है। भ्रांति के स्रोत को नहीं पहचानते। तो पत्ते काटते रहो, जड़ तो बनी है।
और मजा ऐसा है कि जड़ को हम पानी देते हैं--और पत्तों को हम काटते हैं! एक हाथ से पानी देते हैं, एक हाथ से काटते हैं। इधर पत्ते कटते जाते हैं, नए पत्ते निकलते आते हैं। एक पत्ता तोड़ते हो, तीन पत्ते निकल आते हैं! ऐसे आदमी तीन से तेरह हो जाता है। टूटता ही जाता है। खंड-खंड हो जाता है। फिर स्वभावतः निर्बलता लगेगी। निर्बलता लगेगी--और संताप होगा। एक हार, हताशा जीवन को घेर लेगी। विजय की संभावना मिट जाएगी। तू कहती है मंजु, बहुरूपी है। देखती हूं, अदृश्य हो जाता है। देखने से जो चीज अदृश्य हो जाए, वह है ही नहीं। न एकरूपी--न बहरूपी। जो नजर के सामने न टिके, जो अदृश्य हो जाए--जैसे ही देखो वैसे ही अदृश्य हो जाए, और जैसे ही पीठ मोड़ो, फिर खड़ी हो जाए--तो समझना कि भ्रांति है, अज्ञान है, बोध का अभाव है। जलाओ दीया ध्यान का और क्रांति अपने से हो जाती है। इसलिए मेरे संन्यासी को मैं ध्यान के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं दे रहा हूं। न तो कहता हूं छोड़ो। न कहता हूं त्याग करो। न कहता हूं तपश्चर्या। न कहता हूं विनम्र बनो। क्योंकि विनम्रता अहंकार का ही रूप है। इतना ही कहता हूं--होश। बेहोशी तोड़ो। यह नींद तोड़ो। ये सपने हैं--इनसे जागो। जाग कर सपनों का कोई अस्तित्व नहीं रह जाता। जागते ही सपने समाप्त हो जाते हैं। सेठ चंदूलाल मारवाड़ी का मुनीम पोपटलाल वर्षों से आकांक्षा करता था कि कुछ तो तनख्वाह में बढ़ती हो जाए! मगर चंदूलाल मारवाड़ी को देखता कि हिम्मत ही न उठती मांग करने की। चंदूलाल की कंजूसी ऐसी कि उससे मांग करना खतरनाक। नौकरी खतम हो सकती है। जो मिलता है, वह भी बंद हो सकता है। सो पोपटलाल चुप रहा, चुप रहा--मौके की तलाश में रहा। मौका चंदूलाल मिलने ही न दे। चंदूलाल कभी मुस्कुराए भी न। चंदूलाल कभी पोपटलाल की तरफ ठीक से देखे भी न। कहो--तो कैसे कहो ऐसे आदमी से। पत्थर की दीवाल बना है। फिर उसने एक तरकीब खोज निकाली। एक सुबह आकर कहा कि सेठ जी, रात एक सपना देखा कि आपने मेरी तनख्वाह पच्चीस रुपए महीना बढ़ा दी है! चंदूलाल ने कहा, अकड़ मत। अगले महीने काट लूंगा। सपने में भूल हो गई होगी। सपने में बढ़ी तनख्वाह असली में काटने की तैयारी है! सपना तो जागे कि नष्ट हुआ।
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