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ज्यों था त्यों ठहराया
होता। नाखून काटते हो, लेकिन दर्द नहीं होता। तो नाखून और बाल माना कि तुम्हारे शरीर के अंग हैं; लेकिन जीवित नहीं हैं। जीवित होते, तो दर्द होगा। जीवन होता, तो पीड़ा होती। मुर्दा हैं। मरे हुए हैं। इसलिए बाल को काटा जा सकता है। कोई पीड़ा नहीं, कोई दर्द नहीं। कोई और अंग तो काटो शरीर का! जहां जीवन है, वहां पीड़ा होगी। बालों का तो काटे जाने पर पता ही नहीं चलता। जो व्यक्ति शरीर को ही सब कुछ माने बैठा है, उसने मुर्दे को ही जीवन समझ लिया है। हसन बसरी को राबिया ने कहा, भीतर झांको। परिधि में मत उलझे रहो। परिधि तो मृत्यु की है, और भीतर अमृत बसा है। बालों में मत खो जाओ। ये तो सब मर्दा हैं। जैसे ये मुर्दा हैं, ऐसे ही तुम्हारा पूरा शरीर भी सिर्फ आत्मा की आभा से मंडित होने के कारण जीवित दिखाई पड़ रहा है। लेकिन यह आभा अपनी नहीं है। एक और सूफी कहानी है। एक फकीर अंधेरी रात में लालटेन लिए एक रास्ते से गुजर रहा है। जंगल का रास्ता है। सन्नाटा है। एकांत है। बीहड़ वन है। जंगली जानवरों का खतरा है। एक और आदमी को भी उसी रास्ते से यात्रा करनी है, वह भी फकीर के साथ हो लिया। फकीर के साथ में लालटेन है। रोशनी पड़ रही है। फकीर की रोशनी में वह आदमी भी चलने लगा। निश्चित ही, लालटेन किसी के हाथ में हो, इससे क्या फर्क पड़ता है! रोशनी तो रास्ते पर पड़ रही थी। फकीर को भी दिखाई पड़ रहा था, उस आदमी को भी दिखाई पड़ रहा था। दोनों आधी रात तक साथ चलते रहे। फिर विदा का क्षण आ गया। दोनों के रास्ते फिर अलग होने लगे। जब रास्ते अलग हुए, तब उस आदमी को पता चला कि वह रोशनी भी अलग हो गई। वह रोशनी अपनी न थी। वह उस फकीर के हाथ की थी। उसके हाथ में थी लालटेन। आधी रात तक तो यह यात्री भूल ही गया था कि रोशनी अपनी नहीं है। रोशनी पराई है। ऐसी ही रोशनी हमारे शरीर की है। दो यात्री साथ-साथ चल रहे हैं--अमृत और मृत्यु। अमृत भीतर है। रोशनी उसकी है। जीवन उसका है। आनंद उसका है। रस उसका है। शरीर तो सिर्फ मंडित है--उसके रस से, उसके आलोक से। जब तक साथ रहेगा, तब तक शरीर को यह भ्रांति रहेगी कि मैं भी जिंदा हूं। उस यात्री को जैसे भ्रांति रही। भूल ही गया था कि हाथ में मेरे लालटेन नहीं है। लालटेन किसी और की है। चलता रहा रोशनी में मस्त--गीत गुनगुनाता हआ। और जब विदा होने का क्षण आया, और फकीर दूसरे रास्ते पर मुडा--घनघोर अंधेरा हो गया। जिस दिन आत्मा छोड़ देती है शरीर को, उस दिन क्या रह जाता है? मिट्टी पड़ी रह जाती है। लाश पड़ी रह जाती है। हसन को राबिया ने कहा, शरीर में मत उलझे रहो। जीवन शरीर का नहीं है। शरीर का मालूम पड़ता है, क्योंकि अभी चलता है, उठता है, बैठता है, बोलता है, खाता है, पीता है। मगर फिर भी याद रखो जीवन तो भीतर छिपी आत्मा का है। लेकिन आत्मा इतनी
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