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ज्यों था त्यों ठहराया
पिला रहा जो--दिलवाला है, पीने में क्या कंजूसी क्या खूबी है? पी कर देखो, क्या रक्खा बतलाने में
यह बुद्धों के अंगूरों से ढली हुई है मय आला अगर तबीयत हो तो डुबकी खाओ इस पैमाने में
क्या केसर कस्तूरी भैया, इसमें हंसी-बहार घुली पीयो जरा सी, पर लग जाएं, गिनती हो परवानों में
ऐसा मिक्सचर प्यारे, तुमने कभी नहीं चक्खा होगा जाम छलकता देख अगर लो, डोल उठो मयखाने में
प्रेम-ध्यान से बनी हुई मय, पिला रहे भगवान हमें पीयो, तरन्नुम बन जाओगे, तुम जीवन के गाने में
योग प्रीतम ने यह कविता मुझे लिख कर भेजी है। भेजनी तुम्हें थी, भेज मुझे दी है! मैं तुम्हें दिए देता हूं। मैं तुम्हें अर्पित किए देता हूं।
आखिरी प्रश्न: भगवान, हम तुम्हें चाहते हैं ऐसे, मरने वाला कोई जिंदगी चाहता है जैसे। ये सुरीले शब्द आंखों को गीला कर जाते हैं। प्रभु, अब तो तेरे चरणों में बिठा दे, तेरी शरण में ही महामृत्यु का स्वाद मिले--यही अभ्यर्थना है।
तथास्तु, चितरंजन! ऐसा ही होगा! यहीं जीयो, यहीं मरो। इस मस्ती में ही जीयो, इस मस्ती में ही मरो। फिर मृत्यु नहीं है। फिर मृत्यु महासमाधि है, महापरिनिर्वाण है। यही मैं चाहता हूं कि मेरा एक भी संन्यासी मरे नहीं। मरना तो होगा, फिर भी मरे नहीं। जागता हुआ मरे, नाचता हआ मरे, होशपूर्वक मरे। तो शरीर मिट जाएगा। मिट्टी मिट्टी में गिर जाएगी। थक जाती है, गिर ही जाना चाहिए, मिट्टी को विश्राम चाहिए। फिर उठेगी, किसी की और देह बनेगी। लेकिन तुम्हारे भीतर जो चैतन्य है, वह न तो कभी जन्मा है, न कभी मरता है। पहले जीने की कला सीख लो--आनंदपूर्ण, रस भीगी। फिर उसी में से मृत्यु की कला आ जाएगी। क्योंकि मृत्यु जीवन का अंत नहीं है, जीवन का शिखर है। जीवन की आखिरी ऊंचाई है मृत्यु। अंत नहीं है, जीवन की सुगंध है। जिन्होंने जीवन ही नहीं जाना, उनके लिए अंत है। और जिन्होंने जीवन जाना--उनके लिए एक नया प्रारंभ है--महाजीवन का।
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